Sunday, January 26, 2014

शेखर सुमन ....... कोई भी नज़्म तुमसे बेहतर तो नहीं....

हो जाने दो तितर-बितर इन
आढ़े-तिरछे दिनों को,
चाहे कितनी भी आँधी आ जाये,
आज भी तुम्हारी मुस्कान का मौसम
मैं अपने दिल में लिए फिरता हूँ...

तुम्हारे शब्द छलकते क्यूँ नहीं
अगर तुम यूं ही रही तो
तुम्हारी खामोशी के टुकड़ों को
अपनी बातों के कटोरे में भर के
ज़ोर से खनखना देना है एक बार...

ये इश्क भी न, कभी पूरा नहीं होता
हमेशा चौथाई भर बाकी बचा रह जाता है,

अपनी ज़िंदगी की इस दाल में
उस चाँद के कलछुल से
तुम्हारे प्यार की छौंक लगा दूँ तो
खुशबू फैल उठेगी हर ओर
और वो चौथाई भर इश्क
रूह में उतर आएगा.....

गर जो तुम्हें लगे कभी
कि मैं शब्दों से खेलता भर हूँ
तो मेरी आँखों में झांक लेना,

लफ़्ज़ और जज़बातों से इतर
तुम्हें मेरा प्यार भी मयस्सर है ....... शेखर सुमन 
                                  

Sunday, January 19, 2014

हरिवंश राय बच्चन ---- काँटा , काँटा ही कैसे रह गया



मेरी बंद मुठियाँ देखकर
जिस-जिस ने मुझसे पूछा,
"इनमें क्या है ?"
मैंने ईमानदारी से बताया ,
"इनमें क्या है ?
इनमें कदम्ब का फूल है। "
और लोगों ने इस पर
सहज विश्वास कर लिया।

वो तो जब
मेरी मुट्ठियों से
रक्त कि बूंदे चूने लगीं
तब लोगों ने मुझे अविश्वास कि नज़रों से घूरा ,
मुझसे कहा ,
"मुट्ठियाँ तो खोलो। "
और जब मैंने मुट्ठियाँ खोलीं
तो उनमें
कंटकीला धतूरे का फल निकला !

मैं शरमाया ,
मेरा झूठ पकड़ा गया ,
मुझे अपने पर आश्चर्य हुआ ,
क्यूंकि मैंने अपनी आखें खोलकर
कदम्ब का फूल अपनी मुट्ठियों में लिया था।

शायद मैं अपनी भावातिशयता में
काँटे को फूल समझा ,
पर काँटा , काँटा ही कैसे रह गया ,
फूल क्यूँ नहीं नहीं बना ,
उसने तो एक कवि का रक्त पिया था। .....  हरिवंश राय बच्चन

Tuesday, January 14, 2014

जाँ निसार अख़्तर ..... जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी

सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी 
तुम आये तो इस रात की औक़ात बनेगी 

उन से यही कह आये कि हम अब न मिलेंगे 
आख़िर कोई तक़रीब - ए - मुलाक़ात बनेगी 

ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें 
ऐ  इश्क़ !  हमारी  न  तेरे  साथ  बनेगी 

हैरत कदा - ए - हुस्न कहाँ है अभी दुनिया 
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी

ये  क्या  के  बढ़ते चलो  बढ़ते  चलो आगे
जब  बैठ  के  सोचेंगे  तो  कुछ बात बनेगी

                                   - जाँ निसार अख़्तर 

Sunday, January 5, 2014

अमित श्रीवास्तव ....... " केहि विधि प्यार जताऊं ..........."




कबहुँ आप हँसे ,
कबहुँ नैन हँसे ,
कबहुँ नैन के बीच ,
हँसे कजरा  ।

कबहुँ टिकुली सजै ,
कबहुँ बेनी सजै ,
कबहुँ बेनी के बीच ,
सजै गजरा । 

कबहुँ चहक उठै ,
कबहुँ महक उठै ,
लगै खेलत जैसे,
बिजुरी औ बदरा । 

कबहुँ कसम धरें ,
कबहुँ कसम धरावै ,
कबहूँ रूठें तौ ,
कहुं लागै न जियरा । 

उन्है निहार निहार ,
हम निढाल भएन  ,
अब केहि विधि  ,.
प्यार जताऊं सबरा । .....   अमित श्रीवास्तव 

Saturday, January 4, 2014

गुलज़ार ....... एक शख़्स था बादा-ख़ार था

मेरा क्या था तेरे हिसाब में मेरा साँस साँस उधार था
जो गुज़र गया वो तो वक़्त था, जो बचा रहा वो ग़ुबार था


तेरी आरज़ू में उड़े तो थे, चन्द ख़ुश्क पत्ते चनार के
जो हवा के दोश से गिर पड़ा, उनमें एक ये ख़ाकसार था


वो उदास उदास इक शाम थी, एक चेहरा था इक चराग़ था
और कुछ नहीं था ज़मीन पर, एक आसमाँ का ग़ुबार था


बड़े सूफ़ियों से ख़याल थे, और बयाँ भी उसका कमाल था
कहा मैंने कब के वही था वो, एक शख़्स था बादा-ख़ार था
                                                                                
                                                    ...... गुलज़ार