Wednesday, June 11, 2014

कैफ़ी आज़मी ..... बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये

बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी
वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता 
                                            .........कैफ़ी आज़मी

Monday, June 2, 2014

~~ समीर लाल ’समीर’ ~~ तुमको सलाम लिखता हूँ

याद करो वो रात..
वो आखिरी मुलाकात..
जब थामते हुए मेरा हाथ
हाथों में अपने
कहा था तुमने...
लिख देती हूँ
मैं अपना नाम
हथेली पर तुम्हारी
सांसों से अपनी ...
फिर ...
कर दी थी तुमने..
अपनी हथेली सामने मेरे ..
कि लिख दूँ मैं भी
अपना नाम उस पर
सांसों से अपनी.....
कहा था तुमने...
सांसों से लिखी इबारत..
कभी मिटती नहीं..
कभी धुलती नहीं..
चाहें आसूँओं का सैलाब भी
उतर आये उन पर..
वो दर्ज रहती हैं
खुशबू बनी हरदम.. हर लम्हा...
साथ में हमारे.....
आज बरसों बाद जब...
बांचने को कल अपना...
खोल दी है मैने.... मुट्ठी अपनी.....
तब...हथेली से उठी...
उसी खुशबू के आगोश में...
ए जिन्दगी!!..
एक बार फिर .....अपने बहुत करीब....
अहसासा है तुम्हें!!....
“मैं ज़िन्दगी की किताब में, यूँ अपना पसंदीदा कलाम लिखता हूँ..
लिख देता हूँ तुम्हारा नाम, और फिर तुमको सलाम लिखता हूँ......”

Wednesday, May 7, 2014

रमाजय शर्मा ....... विषबेल

मुझे विषबेल
क्यों समझ लिया
माँ
मैं तो एक
कोंपल थी
तेरे ही तन की
क्यूं उखाड़ फेंका
फिर मुझे तूने
माँ
क्या तुझे मैं
लगी विषबेल सी
मैं तो तेरे ही
अंतर में उपजी
तेरे ही जैसी
तेरा ही रूप थी
माँ
जब जब मैंने
तेरी कोख में
आने की कोशिश की
तूने क्यूं मुझे
उखाड़ फेंका
माँ
एक बार
बाहरआने का 
मौका दे कर 
तो देखती
माँ
मुझ से ज्यादा
तेरा दर्द
कोई न समझता
माँ
क्योंकि जब जब
मुझे उखाड़ा गया
तेरी कोख से
जितना दर्द मुझे हुआ
माँ
उस से कहीं 
ज्यादा दर्द
तुझे हुआ था
माँ
मेरे आंसू तो
बह ही नही पाये
लेकिन तूने
छिप छिप कर
जाने कितने तकिये
भिगोये थे
माँ
एक बार बस
हिम्मत कर के
देखती तो 
माँ
ये विषबेल
तेरी अमरबेल
बन जाती
माँ  ................. रमाजय शर्मा 

Monday, March 24, 2014

SLOW DANCE


Have you ever watched kids on a merry-go-round?
Or listened to the rain slapping on the ground?

Ever followed a butterfly's erratic flight?
Or gazed at the sun into the fading night?

You better slow down.
Don't dance so fast.
Time is short.
The music won't last.

Do you run through each day on the fly?
When you ask, “How are you?”
Do you hear the reply?

When the day is done, do you lie in your bed,
with the next hundred chores running through your head?

You'd better slow down
Don't dance so fast.
Time is short
The music won't last.

Ever told your child,
We'll do it tomorrow?
And in your haste,
Not see his sorrow?

Ever lost touch, let a good friendship die
Cause you never had time
To call and say,'Hi'

You'd better slow down.
Don't dance so fast.
Time is short.
The music won't last..

When you run so fast to get somewhere,
You miss half the fun of getting there.

When you worry and hurry through your day,
It is like an unopened gift....
Thrown away.

Life is not a race.
Do take it slower
Hear the music
Before the song is over. ....( unknown )

with thanks from facebook wall of Rashmi Ravija ji ........

Friday, March 21, 2014

अनुलता ....... पनीली उदासियाँ


ओक में भर लिया था
तुम्हारा प्रेम
मैंने,
रिसता रहा बूँद-बूँद
उँगलियों की दरारों के बीच से |
बह ही जाना था उसे
प्रेम जो था !

रह गयी है नमी सी
हथेलियों पर
और एक भीनी
जानी पहचानी महक
प्रेम की |

ढांपती हूँ जब  कभी
हथेलियों से
अपना उदास चेहरा,
मुस्कुरा उठती हैं तुम्हारी स्मृतियाँ
और मैं भी !

कि लगता है
वक्त के साथ
रिस जाती हैं धीरे धीरे
मन की दरारों से
पनीली उदासियाँ भी |    ......... अनुलता 

Tuesday, March 11, 2014

चैतन्य आलोक ...... इस पूरी यात्रा ,में तुम्हें क्या मिला

वो मेरी तुमसे पहली पहचान थी
जब मैं जन्मा भी न था
मैं गर्भ में था तुम्हारे
और तुम सहेजे थीं मुझे.

फिर मृत्यु सी पीड़ा सहकर भी
जन्म दिया तुमने मुझे
सासें दींदूध दियारक्त दिया तुमने मुझे.

और जैसे तुम्हारे नेह की पतवार
लहर लहर ले आयी जीवन में

तुम्हारी उंगली को छूकर
तुमसे भी ऊँचा होकर
एक दिन अचानक
तुमसे अलग हो गया मैं.

और जिस तरह नदी पार हो जाने पर
नाव साथ नहीं चलती
मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था
तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

बचपन के साथ तुम्हें भी खत्म समझ लिया मैने
और तब तुम मेरे साथ बराबर की होकर आयीं थीं..

बादलों पर चलते
ख्याब हसीं बुनते
हम कितना बतियाते थे चोरी के उन लम्हों में
दुनिया भर की बातें कर जाते थे

मै तुम पर कविता लिखता था
खुद को पुरूरवा
तुम्हें उर्वशी” कहता था.

और जैसा अक्सर होता है
फिर एक रोज़
तुम्हारे पुरूरवा” को भी ज्ञान प्राप्त हो गया
वो उर्वशी” का नहीं लक्ष्मी का दास हो गया

तुम फिर आयीं मेरे जीवन में
मैने फिर तुम्हारा साथ पाया

वह तुम्हारा समर्पण ही था
जिसने चारदीवारी को घर बना दिया
पर व्यवहार कुशल मैं
सब जान कर भी खामोश रह गया

और उन्मादी रातों में
तुम जब नज़दीक होती
यह पुरूरवा”, “वात्सायन” बन जाता
खेलता तुम्हारे शरीर से और रह जाता था अछूत
तुम्हारी कोरी भावनाऑ से

सोचता हूं ?
इस पूरी यात्रा में
तुम्हें क्या मिला
क्या मिला

एक लाल
और फिर यही सब .....

और जब तुमने लाली को जना था
तो क्यों रोयीं थीं तुम
क्यों रोयीं थीं???

                     -    चैतन्य आलोक 
साभार सलिल भैया के ब्लॉग से 




Sunday, March 9, 2014

मिर्ज़ा ग़ालिब ................. जा़हिर है तेरा हाल सब उन पर

घर जब बना लिया तिरे दर पर, कहे बिग़ैर
जानेगा अब तू न मिरा घर कहे बिग़ैर

कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़ते सुख़न       
जानूं किसी के दिल की मैं क्योंकर, कहे बिगै़र

काम उससे आ पड़ा है, कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम, सितमगर कहे बिग़ैर 

जी ही में कुछ नहीं है हमारे वगरना हम
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बिगै़र   

छोड़ूंगा मैं न, उस बूते- काफ़िर का पूजना
छोड़े न खल्क़ गो मुझे काफिर कहे बिगैर

मक़सद है नाजो़-गम्जा, वले गुफ्तगू में, काम
चलता नहीं है दश्न-ओ-खंजर कहे बिग़ैर

हरचंद, हो मुशाहिद-ए-हक़  की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है, बादा-ओ-सागर कहे बिगैर

बहरा हूं मैं, तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात  
सुनता नहीं हूं बात, मुकर्रर  कहे बिग़ैर

‘ग़ालिब’, न कर हुजूर में तू बार-बार अर्ज़
जा़हिर है तेरा हाल सब उन पर, कहे बिग़ैर ................ मिर्ज़ा ग़ालिब

..................................................................................................................................................................

सुख़नः-       वाक शक्ति 
मुशाहिद-ए-हक़ः- सत्य या परमात्मा
इल्तिफ़ातः-     कृपा
मुकर्ररः-      दुआ 

Friday, March 7, 2014

कैफ़ी आज़मी ........ जिसे समझ न सका प्यार भी वो प्यार हो तुम

शगुफ्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम
फ़क़त बहार नहीं, हासिल-बहार हो तुम

जो एक फूल में है क़ैद, वो गुलसितां हो
जो इक कली में है पिन्हां वो लालाज़ार हो तुम

हलावतों की तमन्ना, मलाहतों की मुराद
गुरुर कलियों का, फूलों का इंकिसार हो तुम

जिसे तरंग में फ़ितरत ने गुनगुनाया है
वो भैरवी हो, वो दीपक हो, वो मल्हार हो तुम

तुम्हारे जिस्म में खबीदा हज़ारों राग
निगाह छेड़ती है जिसको वो सितार हो तुम

जिसे उठा न सकी जुस्तजू वो मोती हो
जिसे न गूंध सकी आरज़ू वो हार हो तुम

जिसे न बूझ इश्क़ वो पहेली हो
जिसे समझ न सका प्यार भी वो प्यार हो तुम

खुदा किसी दामन में जज़्ब हो न सकें
ये मेरे अश्के-हसीं जिनसे आशकार हो तुम ...........  
कैफ़ी आज़मी
                                                              

Wednesday, March 5, 2014

मीनाक्षी मिश्रा तिवारी ........... टुकड़े

सब कुछ साबुत जब दिखता है ऊपर से ,

बहुत कुछ टूटा होता है अन्दर !!

कई टुकड़े ......
स्व-अस्तित्व के,
स्वाभिमान के,
क्षत-विक्षत भावनाओं के,
अपनों ही की- ईर्ष्या के,
और उन पैने शब्दों के,
जिनका विष नष्ट नहीं होता कभी ...... !!

हाथ डालकर टटोलते हुए,
चुभ जाती हैं पैनी नोंकें कई बार,
उन टुकड़ों की जो बिखरे हैं ,
और लहुलुहान कर जाती हैं मन !!

बाहर सब साबुत होता है !! ....... मीनाक्षी मिश्रा तिवारी 

Saturday, March 1, 2014

संध्या शर्मा ......... छोटी सी अभिलाषा...



तुम .....
प्रकृति की अनुपम रचना
तुम्हारा विराट अस्तित्व
समाया है मेरे मन में
और मैं .....
रहना चाहती हूँ हरपल
रजनीगंधा से उठती
भीनी-भीनी महक सी
तुम्हारे चितवन में
चाहती हूँ सिर्फ इतना
कि मेरा हर सुख हो
तुम्हारी स्मृतियों में
और दुःख ........
केवल विस्मृतियों में................!  
संध्या शर्मा 

Thursday, February 27, 2014

दिगंबर नासवा ....... रोने से कुछ दिल का बोझ उतर जाता है !


धीरे धीरे हर सैलाब उतर जाता है 
वक्त के साथ न जाने प्यार किधर जाता है 

यूँ ना तोड़ो झटके से तुम नींदें मेरी 
आँखों से फिर सपना कोई झर जाता है 

आने जाने वालों से ये कहती सड़कें 
इस चौराहे से इक रस्ता घर जाता है 

बचपन और जवानी तो आनी जानी है 
सिर्फ़ बुढ़ापा उम्र के साथ ठहर जाता है 

सीमा के उस पार भी माएँ रोती होंगी 
बेटा होता है जो सैनिक मर जाता है 

अपने से ज़्यादा रहता हूँ तेरे बस में 
चलता है ये साया जिस्म जिधर जाता है 

सुख में मेरे साथ खड़े थे बाहें डाले 
दुख आने पे अक्सर साथ बिखर जाता है 

कुछ बातें कुछ यादें दिल में रह जाती हैं 
कैसे भी बीते ये वक़्त गुज़र जाता है 

माना रोने से कुछ बात नहीं बनती पर 
रोने से कुछ दिल का बोझ उतर जाता है ! …… दिगंबर नासवा

Tuesday, February 25, 2014

"निराला" ................स्नेह-निर्झर बह गया है !

स्नेह-निर्झर बह गया है !
रेत ज्यों तन रह गया है ।

आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन दह गया है ।"

"दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है ।"

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है । 
                             ..... निराला 

Friday, February 21, 2014

गुलज़ार ..... पतझड़ में जब

पतझड़ में जब
पत्ते गिरने लगते हैं 
क्या कहते होंगे शाखों से?
कहते होंगे न,
हम तो अपना मौसम जी कर जाते हैं

तुम खुश रहना..
तुमको तो हर मौसम की
औलादें पाल के रुखसत करनी होंगी

शाख की बारी आई थी
जब कटने की
तो पेड़ से बोली
तुमको मेरी उम्र लगे
तुमको तो बढ़ना है
उंचा होना है
दूसरी आ जायेगी
मुझको याद न रखना

पेड़ ज़मीन से क्या कहता?
जब खोद खोद कर
उसके जड़ों के टांकें तोड़े
और उसको ज़मीन से अलग किया
उलटा ज़मीन को कहना पड़ा
याद है एक छोटे से बीज से
तुमने झाँक कर देखा था
जब पहली पत्ती आई थी
फिर आना
और मेरी कोख से
पैदा होना
अगर मैं बची रही
अगर मैं बची रही
                ....गुलज़ार 

Sunday, February 16, 2014

सतीश सक्सेना ........ जब देखोगे खाली कुर्सी, पापा याद बड़े आयेंगे

चले गए वे अपने घर से 
पर मन से वे दूर नहीं हैं 
चले गए वे इस जीवन से  
लेकिन लगते दूर नहीं हैं !
अब न सुनोगे  वे आवाजें, जब वे दफ्तर से आयेंगे  !
मगर याद करने पर उनको,कंधे  हाथ रखे पाएंगे !

अब न मिलेगी पुच्ची वैसी 
पर स्पर्श  तो बाकी होगा ! 
अब न मिलेगी उनकी आहट 
पर अहसास तो बाकी होगा
कितने ताकतवर लगते थे,वे कठिनाई के मौकों पर !
जब जब याद करेंगे दिलसे , हँसते हुए, खड़े पाएंगे !

अपने कष्ट नही कह पाये
जब जब वे बीमार पड़े थे 
हाथ नहीं फैलाया आगे 
स्वाभिमान के धनी बड़े थे
पाई पाई बचा के कैसे, घर की दीवारें  बनवाई !
जब देखेंगे  खाली कुर्सी, पापा  याद बड़े आयेंगे !

अब तो उनके बचे काम को 
श्रद्धा  से  पूरे  कर  लेना !
उनके दायित्वों को ही बस 
मान सहित पूरे कर लेना !
चले गए वे बिना बताये पर हमको आभास रहेगा    
दुःख में हमें सहारा देने , पापा पास खड़े पाएंगे !

तिनका तिनका जोड़ उन्होंने 
इस घर का निर्माण किया था !
बड़ी शान से, हम बच्चों  को 
पढ़ा लिखा कर,बड़ा किया था !
उनकी बगिया को महकाकर,यादें खुशबूदार रखेंगे !  
हमें पता है हर सुख दुःख में,पापा पास खड़े पाएंगे ! ....... सतीश सक्सेना

Saturday, February 15, 2014

मिर्ज़ा ग़ालिब ...... जा़हिर है तेरा हाल सब उन पर

घर जब बना लिया तिरे दर पर, कहे बिग़ैर
जानेगा अब तू न मिरा घर कहे बिग़ैर

कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़ते सुख़न       
जानूं किसी के दिल की मैं क्योंकर, कहे बिगै़र

काम उससे आ पड़ा है, कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम, सितमगर कहे बिग़ैर 

जी ही में कुछ नहीं है हमारे वगरना हम
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बिगै़र   

छोड़ूंगा मैं न, उस बूते- काफ़िर का पूजना
छोड़े न खल्क़ गो मुझे काफिर कहे बिगैर

मक़सद है नाजो़-गम्जा, वले गुफ्तगू में, काम
चलता नहीं है दश्न-ओ-खंजर कहे बिग़ैर

हरचंद, हो मुशाहिद-ए-हक़  की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है, बादा-ओ-सागर कहे बिगैर

बहरा हूं मैं, तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात  
सुनता नहीं हूं बात, मुकर्रर  कहे बिग़ैर

‘ग़ालिब’, न कर हुजूर में तू बार-बार अर्ज़
जा़हिर है तेरा हाल सब उन पर, कहे बिग़ैर  ....... मिर्ज़ा ग़ालिब

Thursday, February 13, 2014

मुकेश कुमार सिन्हा ....... सिर्फ जिया जाता है प्यार!!!

न आसमान को मुट्ठी में,
कैद करने की थी ख्वाइश,
और न, चाँद-तारे तोड़ने की चाहत!
कोशिश थी तो बस,
इतना तो पता चले की,
क्या है?
अपने अहसास की ताकत!!

इतना था अरमान!
की गुमनामी की अँधेरे मैं,
प्यार के सागर मैं,
ढूँढू अपनी पहचान!!
इसी सोच के साथ,
मैंने निहारा आसमान!!!

और खोला मन को द्वार!
ताकि कुछ लिख पाऊं,
आखिर क्या है?
ढाई आखर प्यार!!
पर बिखर जाते हैं,
कभी शब्द तो कभी,
मन को पतवार!!!
रह जाती है,
कलम की मुट्ठी खाली हरबार!!!!

फिर आया याद,
खुला मन को द्वार
कि किया नहीं जाता प्यार!!
सिर्फ जिया जाता है प्यार!!!
किसी के नाम के साथ,
किसी कि नाम के खातिर!
प्यार, प्यार और प्यार!!!! 

                       ........ मुकेश कुमार सिन्हा 

कन्हैयालाल नंदन ....... जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है

सुनो,
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो मुझे तुम्हारी आंखों में
ठिठके हुये बेचैन समंदर की याद आती है।
और जब भी वह बेचैनी
कभी फ़ूटकर बही है
मैंने उसकी धार के एक-एक मोती को हथेलियों में चुना है
और उनकी ऊष्मा में
तुम्हारे अन्दर की ध्वनियों को बहुत नजदीक से सुना है।
अंगुलियों को छू-छूकर
संधों से सरक जाती हुई
आंसुओं की सिहरन
जैसे आंसू न हो
कोई लगभग जीवित काल-बिन्दु हो
जो निर्वर्ण,
नि:शब्द
अंगुलियों के बीच से सरक जाने की कोशिश कर रहा हो
किसी कातर छौने-सा।
और अब अपनी उंगलियों को सहलाते हुये
समय
मुझे साफ़ सुनाई देने लगा है।
इसीलिये जब भी तुम्हारा दुख फ़ुटकर बहा है
मैंने उसे अपनी हथेलियों में सहेजा।
भले ही इस प्रक्रिया में
समय टूट-टूट कर लहूलुहान होता रहा
लेकिन तुम्हे सुनने के लालच में
मेरे इन हाथों ने
इस कष्टकर संतुष्टि को बार-बार सहा है।
और अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है
तो रफ़्तार की बंदी बेचैनी
मेरी हथेलियों में एक सिहरन भर जाती है।
अब जब भी कहीं कोई झील डबडबाती है……..।
कन्हैयालाल नंदन

Saturday, February 8, 2014

आराधना 'मुक्ति' ....... मेरे दोस्त

मैं खुद को आज़ाद तब समझूँगी

जब सबके सामने यूँ ही

लगा सकूँगी तुम्हें गले से

इस बात से बेपरवाह कि तुम एक लड़के हो,

फ़िक्र नहीं होगी

कि क्या कहेगी दुनिया?

या कि बिगड़ जायेगी मेरी 'भली लड़की' की छवि,

चूम सकूँगी तुम्हारा माथा

बिना इस बात से डरे

कि जोड़ दिया जाएगा तुम्हारा नाम मेरे नाम के साथ

और उन्हें लेते समय

लोगों के चेहरों पर तैर उठेगी कुटिल मुस्कान


जब मेरे-तुम्हारे रिश्ते पर

नहीं पड़ेगा फर्क

तुम्हारी या मेरी शादी के बाद,

तुम वैसे ही मिलोगे मुझसे

जैसे मिलते हो अभी,

हम रात भर गप्पें लड़ाएँगे

या करेंगे बहस

इतिहास-समाज-राजनीति और संबंधों पर,

और इसेतुम्हारे या मेरे जीवनसाथी के प्रति

हमारी बेवफाई नहीं माना जाएगा


वादा करो मेरे दोस्त!

साथ दोगे मेरा,भले ही ऐसा समय आते-आते

हम बूढ़े हो जाएँ,या खत्म हो जाएँ कुछ उम्मीदें लिए

उस दुनिया में

जहाँ रिवाज़ है चीज़ों को साँचों में ढाल देने का,

दोस्ती और प्यार को

परिभाषाओं से आज़ादी मिले ........ आराधना 'मुक्ति'

अमित श्रीवास्तव ......" कहानी .......एक जोड़े की "


एक प्यारा सा जोड़ा था ,
दोनों ने तिल तिल ,
आपस में प्यार था जोड़ा ,
इस जोड़े हुए प्यार से उनकी ,
हयाते-राह खुशगवार हुई ,

जोड़ा जोड़ने की ,
ख्वाहिश लिए ,
खुद को दुनिया से,
रिश्ते तमाम जोड़ता गया  ,

हयाते-राह एक भूल हुई ,
दोनों ने प्यार के इस जोड़ में ,
अपने अपने हिस्से का प्यार ,
बराबर न जोड़ा ,

प्यार का जोड़ गलत हुआ ,
जोड़ा जोड़ में उलझ गया ,
जोड़ जोड़ खुल गया ,
प्यार तितर बितर हो गया ,
जोड़ा जड़वत हो गया । 

                              "प्यार में हिसाब कैसा ..प्यार तो बे-हिसाब होना चाहिए "
                                                                                        ..............  अमित श्रीवास्तव 

Sunday, January 26, 2014

शेखर सुमन ....... कोई भी नज़्म तुमसे बेहतर तो नहीं....

हो जाने दो तितर-बितर इन
आढ़े-तिरछे दिनों को,
चाहे कितनी भी आँधी आ जाये,
आज भी तुम्हारी मुस्कान का मौसम
मैं अपने दिल में लिए फिरता हूँ...

तुम्हारे शब्द छलकते क्यूँ नहीं
अगर तुम यूं ही रही तो
तुम्हारी खामोशी के टुकड़ों को
अपनी बातों के कटोरे में भर के
ज़ोर से खनखना देना है एक बार...

ये इश्क भी न, कभी पूरा नहीं होता
हमेशा चौथाई भर बाकी बचा रह जाता है,

अपनी ज़िंदगी की इस दाल में
उस चाँद के कलछुल से
तुम्हारे प्यार की छौंक लगा दूँ तो
खुशबू फैल उठेगी हर ओर
और वो चौथाई भर इश्क
रूह में उतर आएगा.....

गर जो तुम्हें लगे कभी
कि मैं शब्दों से खेलता भर हूँ
तो मेरी आँखों में झांक लेना,

लफ़्ज़ और जज़बातों से इतर
तुम्हें मेरा प्यार भी मयस्सर है ....... शेखर सुमन 
                                  

Sunday, January 19, 2014

हरिवंश राय बच्चन ---- काँटा , काँटा ही कैसे रह गया



मेरी बंद मुठियाँ देखकर
जिस-जिस ने मुझसे पूछा,
"इनमें क्या है ?"
मैंने ईमानदारी से बताया ,
"इनमें क्या है ?
इनमें कदम्ब का फूल है। "
और लोगों ने इस पर
सहज विश्वास कर लिया।

वो तो जब
मेरी मुट्ठियों से
रक्त कि बूंदे चूने लगीं
तब लोगों ने मुझे अविश्वास कि नज़रों से घूरा ,
मुझसे कहा ,
"मुट्ठियाँ तो खोलो। "
और जब मैंने मुट्ठियाँ खोलीं
तो उनमें
कंटकीला धतूरे का फल निकला !

मैं शरमाया ,
मेरा झूठ पकड़ा गया ,
मुझे अपने पर आश्चर्य हुआ ,
क्यूंकि मैंने अपनी आखें खोलकर
कदम्ब का फूल अपनी मुट्ठियों में लिया था।

शायद मैं अपनी भावातिशयता में
काँटे को फूल समझा ,
पर काँटा , काँटा ही कैसे रह गया ,
फूल क्यूँ नहीं नहीं बना ,
उसने तो एक कवि का रक्त पिया था। .....  हरिवंश राय बच्चन

Tuesday, January 14, 2014

जाँ निसार अख़्तर ..... जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी

सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी 
तुम आये तो इस रात की औक़ात बनेगी 

उन से यही कह आये कि हम अब न मिलेंगे 
आख़िर कोई तक़रीब - ए - मुलाक़ात बनेगी 

ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें 
ऐ  इश्क़ !  हमारी  न  तेरे  साथ  बनेगी 

हैरत कदा - ए - हुस्न कहाँ है अभी दुनिया 
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी

ये  क्या  के  बढ़ते चलो  बढ़ते  चलो आगे
जब  बैठ  के  सोचेंगे  तो  कुछ बात बनेगी

                                   - जाँ निसार अख़्तर 

Sunday, January 5, 2014

अमित श्रीवास्तव ....... " केहि विधि प्यार जताऊं ..........."




कबहुँ आप हँसे ,
कबहुँ नैन हँसे ,
कबहुँ नैन के बीच ,
हँसे कजरा  ।

कबहुँ टिकुली सजै ,
कबहुँ बेनी सजै ,
कबहुँ बेनी के बीच ,
सजै गजरा । 

कबहुँ चहक उठै ,
कबहुँ महक उठै ,
लगै खेलत जैसे,
बिजुरी औ बदरा । 

कबहुँ कसम धरें ,
कबहुँ कसम धरावै ,
कबहूँ रूठें तौ ,
कहुं लागै न जियरा । 

उन्है निहार निहार ,
हम निढाल भएन  ,
अब केहि विधि  ,.
प्यार जताऊं सबरा । .....   अमित श्रीवास्तव