Friday, December 27, 2013

अमित श्रीवास्तव ...... "तुम पे, क्या लिखूं"

सुना है, 
तुम लिखते भी हो, 
उसने पूछा था | 
हूँ ! 
मैंने कहा था | 
कुछ मेरे पे लिखो, 
प्यार भरी आँखों, 
से गुदगुदाया, 
तनिक मुझे, 
और उंगलियाँ, 
पकड़ ली थी मेरी | 
गोया, 
उनमें से हर्फ़  निकलेंगे अभी, 
और वो उन्हें, 
अपने इर्द गिर्द, 
समेट  लेगी,
और बना  लेगी,
लिबास,
एक नज़्म  का |
मैंने कहा था, 
हाँ,पर उसके लिए,
तुम्हे जानना होगा, मुझे |
पर, 
मै जब भी,
कोशिश करता हूँ,
जानने  की  तुमको,
तुम, 
मेरे  ख्यालों  की  ही, 
हकीकत  सी  लगती हो |
तुम पे कैसे लिखूं, 
तुम तो 'स्टेंसिल'  हो,
मेरी नज्मों  की,
मेरी ग़ज़लों की |
समय तुमसे ही,
छन कर,
आता है, 
और, 
छपता सा  जाता है, 
सफों पे, 
ज़िन्दगी के मेरी |
तुम तो खुद में, 
एक लफ्ज़  हो,
इबारत हो, 
तबस्सुम  हो, 
एक मिज़ाज हो |
जब भी लौटा  हूँ, 
पास से तेरे, 
कभी नज़्म,
तो, 
कभी ग़ज़ल,
ही,  
छपी मिली है, 
दिल पे मेरे |  
तुम पे, 
क्या लिखूं, 
और कैसे लिखूं ?   ...............  अमित श्रीवास्तव 

Wednesday, December 25, 2013

~कैफ़ भोपाली ~ बच्चा बच्चा तेरा दिवाना लगता है

तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है

तिरछे तिरछे तीर नज़र के लगते हैं
सीधा सीधा दिल पे निशाना लगता है


आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते बुझते एक ज़माना लगता है

पाँव ना बाँधा पंछी का पर बाँधा
आज का बच्चा कितना सयाना लगता है

सच तो ये है फूल का दिल भी छलनी है
हँसता चेहरा एक बहाना लगता है

सुनने वाले घंटों सुनते रहते हैं
मेरा फसाना सब का फसाना लगता है

‘कैफ’ बता क्या तेरी गज़ल में जादू है
बच्चा बच्चा तेरा दिवाना लगता है
~  कैफ़ भोपाली  ~