Friday, December 27, 2013

अमित श्रीवास्तव ...... "तुम पे, क्या लिखूं"

सुना है, 
तुम लिखते भी हो, 
उसने पूछा था | 
हूँ ! 
मैंने कहा था | 
कुछ मेरे पे लिखो, 
प्यार भरी आँखों, 
से गुदगुदाया, 
तनिक मुझे, 
और उंगलियाँ, 
पकड़ ली थी मेरी | 
गोया, 
उनमें से हर्फ़  निकलेंगे अभी, 
और वो उन्हें, 
अपने इर्द गिर्द, 
समेट  लेगी,
और बना  लेगी,
लिबास,
एक नज़्म  का |
मैंने कहा था, 
हाँ,पर उसके लिए,
तुम्हे जानना होगा, मुझे |
पर, 
मै जब भी,
कोशिश करता हूँ,
जानने  की  तुमको,
तुम, 
मेरे  ख्यालों  की  ही, 
हकीकत  सी  लगती हो |
तुम पे कैसे लिखूं, 
तुम तो 'स्टेंसिल'  हो,
मेरी नज्मों  की,
मेरी ग़ज़लों की |
समय तुमसे ही,
छन कर,
आता है, 
और, 
छपता सा  जाता है, 
सफों पे, 
ज़िन्दगी के मेरी |
तुम तो खुद में, 
एक लफ्ज़  हो,
इबारत हो, 
तबस्सुम  हो, 
एक मिज़ाज हो |
जब भी लौटा  हूँ, 
पास से तेरे, 
कभी नज़्म,
तो, 
कभी ग़ज़ल,
ही,  
छपी मिली है, 
दिल पे मेरे |  
तुम पे, 
क्या लिखूं, 
और कैसे लिखूं ?   ...............  अमित श्रीवास्तव 

Wednesday, December 25, 2013

~कैफ़ भोपाली ~ बच्चा बच्चा तेरा दिवाना लगता है

तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है

तिरछे तिरछे तीर नज़र के लगते हैं
सीधा सीधा दिल पे निशाना लगता है


आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते बुझते एक ज़माना लगता है

पाँव ना बाँधा पंछी का पर बाँधा
आज का बच्चा कितना सयाना लगता है

सच तो ये है फूल का दिल भी छलनी है
हँसता चेहरा एक बहाना लगता है

सुनने वाले घंटों सुनते रहते हैं
मेरा फसाना सब का फसाना लगता है

‘कैफ’ बता क्या तेरी गज़ल में जादू है
बच्चा बच्चा तेरा दिवाना लगता है
~  कैफ़ भोपाली  ~

Saturday, November 30, 2013

नीरज ...... एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के

एक तेरे बिना ,प्राण ओ प्राण के 
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर ! 

बाँसुरी से बिछुड़ जो गया स्वर उसे
भर लिया कंठ में शून्य आकाश ने,
डाल विधवा हुई जो कि पतझर में
माँग उसकी भरी मुग्ध मधुमास ने !

हो गया कूल नाराज जिस नाव से
पा गई प्यार वह एक  मँझधार का ,
बुझ गया जो दीया भोर में दीन-सा
बन गया रात सम्राट अँधियार का !

जो सुबह रंक था, शाम राजा हुआ
जो लुटा आज कल फिर बसा भी वही,
एक मैं ही कि जिसके चरण से धरा
रोज तिल-तिल धसकती रही उम्र-भर ! 

एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के 
साँस मेरी सिसकती रही उम्र भर ! 

प्यार इतना किया जिंदगी में कि जड़ -
मौन तक मरघटों का मुखर कर दिया,
रूप सौंदर्य इतना लुटाया कि हर
भिक्षु के हाथ पर चंद्रमा धर दिया !

भक्ति-अनुरक्ति ऐसी मिली, सृष्टि की
शक्ल हर एक मेरी तरह हो गई, 
जिस जगह आँख मूँदी निशा आ गई
जिस जगह आँख खोली सुबह हो गई !

किंतु इस राग-अनुराग की राह पर
वह न जाने रतन कौन सा खो गया ?
खोजती सी जिसे दूर मुझसे स्वयं
आयु मेरी खिसकती रही उम्र भर !

एक तेरे बिना ,प्राण ओ प्राण के 
साँस मेरी सिसकती रही उम्र भर ! 

वेश भाए न जाने तुझे कौन-सा
इसलिए रोज कपड़े बदलता रहा
किस जगह ,कब ,कहाँ हाथ तू थाम ले
इसलिए रोज गिरता संभलता रहा !

कौन सी मोह ले तान तेरा हृदय
गीत गाया इसी से सभी राग का, 
छेड़ दी रागिनी आँसुओ की कभी
शंख फूँका कभी क्राँति का आग का !

किस तरह ,खेल क्या खेलता तू मिले
खेल खेले इसी से सभी विश्व के ,
कब न जाने करे याद तू इसलिए 
याद कोई ‍कसकती रही उम्र भर !

एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के 
साँस मेरी सिसकती रही उम्र भर !

रोज ही रात आई ,गई रोज ही
आँख झपकी ,मगर नींद आई नहीं
रोज ही हर सुबह, रोज ही हर कली
खिल गई तो मगर मुस्कुराई नहीं !

नित्य ही रास  में बृज रचा चाँद ने 
पर न बाजी बाँसुरिया कभी श्याम की
इस तरह उर - अयोध्या बसाई गई
याद भूली न लेकिन किसी राम की !

हर जगह जिंदगी में लगी कुछ कमी
हर हँसी आँसुओं में नहाई मिली
हर समय, हर घड़ी, भूमि से स्वर्ग तक
आग कोई दहकती रही उम्र भर ! 

एक  तेरे बिना प्राण ओ प्राण के 
सांस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !

खोजता ही फिरा पर अभी तक मुझे 
मिल सका कुछ न तेरा ठिकाना कहीं,
ज्ञान से बात की तो कहा बुद्धि ने 
'सत्य है वह मगर आजमाना नहीं' !

धर्म के पास पहुँचा पता यह चला
मंदिरों मस्जिदों में अभी बंद है,
जोगियों ने जताया कि जप-योग है
भोगियों से सुना भोग-आनंद है !

किंतु पूछा गया नाम जब प्रेम से 
धूल से वह लिपट फूटकर रो पड़ा,
बस तभी से व्यथा देख संसार की
आँख मेरी छलकती रही उम्र-भर !

एक तेरे बिना प्राण ओ प्राण के 
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !! ...........नीरज 

Tuesday, November 26, 2013

सलिल वर्मा ........ तुम मुझे दो एक अच्छी माँ, तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूँगा.

तुम मुझे दो एक अच्छी माँतुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूँगा.

बात तो जिसने कही थी सच कही थी
पर भला वो भूल कैसे ये गया कि
पूत कितने ही सुने हैं कपूत लेकिन
माँ कुमाता होनहीं इतिहास कहता.

माँ कहा करते थे नदियों को,
और उनको पूजते थे
तब कहीं जाकर जने थे सभ्यता के पूत ऐसे
आज भी है साक्षी इतिहास जिनका.

पुस्तकों में था पढा हमने कि
दुनिया की पुरानी सभ्यताएँ
थीं फली फूली बढीं नदियों के तट पर.
याद कर लें हम
वो चाहे नील की हो सभ्यता या सिंधु घाटी की
गवाह उनके अभी भी हैं चुनौती आज की तकनीक को
चाहे पिरमिड मिस्र के हों
या हड़प्पा की वो गलियाँनालियाँहम्माम सारे.

माँ तो हम सब आज भी कहते हैं नदियों को
बड़े ही गर्व से जय बोलते हैं गंगा मईया की,
औ’ श्रद्धा से झुकाते सिर हैं अपना
जब गुज़रते हैं कभी जमुना के पुल से.

वक़्त किसके पास होता है मगर
कुछ पल ठहरकर झाँक ले जमुना के पानी में
था जिसको देखकर बिटिया ने मेरी पूछा मुझसे,
“डैड! ये इतना बड़ा नाला यहाँ पर कैसे आया?
कितना गंदा है चलो 
 जल्दी यहाँ से!”

कैसे मैं उसको ये बतलाऊँ कि इस नाले का पानी,
हम रखा करते थे पूजा में
छिडककर सिर पे, धोते पाप अपने,

काँप उट्ठा दिल उसी दिन
दुर्दशा को देखकर गंगा की, जमुना की.
आज की इस नस्ल को क्या ये नहीं मालूम,
नदियाँ हों जहाँ नाले से बदतर,
जन्म लेती है निठारी सभ्यता,
जिसमें हैं कत्ले-आम और आतंक के साये.
उजडती आबरू, नरभक्षियों का राज!

मित्रों,
आपको मालूम हो उस शख्स का कोई पता
तो इस नगर का भी पता उसको बताना,
और कहना
आके बस इक बार ये ऐलान कर दे,

तुम मुझे दो एक अच्छी माँ
तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूंगा! 

आशीष राय ...... विश्व वैचित्र्य


कही अतुल जलभृत वरुणालय
गर्जन करे महान
कही एक जल कण भी दुर्लभ
भूमि बालू की खान

उन्नत उपल समूह समावृत
शैल श्रेणी एकत्र
शिला सकल से शून्य धान्यमय
विस्तृत भू अन्यत्र

एक भाग को दिनकर किरणे
रखती उज्जवल उग्र
अपर भाग को मधुर सुधाकर
रखता शांत समग्र

निराधार नभ में अनगिनती
लटके लोक विशाल
निश्चित गति फिर भी है उनकी
क्रम से सीमित काल

कारण सबके पंचभूत ही
भिन्न कार्य का रूप
एक जाति में ही भिन्नाकृति
मिलता नहीं स्वरुप

लेकर एक तुच्छ कीट से
मदोन्मत्त मातंग
नियमित एक नियम से सारे
दिखता कही न भंग

कैसी चतुर कलम से निकला
यह क्रीडामय चित्र
विश्वनियन्ता ! अहो बुद्धि से
परे विश्व वैचित्
                                                                           ..... आशीष राय 

Monday, November 25, 2013

शेखर सुमन ....... "संघर्ष"

अंतहीन समंदर,आती जाती तेज़ लहरें,
एक आशंका लिए कि,
मझधार यह कहाँ ले जाएगी,
ज़िन्दगी से लड़ते- लड़ते मौत दे जाएगी,
एक किनारे की तलाश में,
निगाहें समेटना चाहती हैं समंदर,
मायूसी की घटा है चेहरे पर,
बयां करती एक दास्तान,
दरम्यान यह ज़िन्दगी मौत का
एक पल के झरोखे में मिटा जाएगी,
डूबना होगा अगर मुकद्दर मेरा,
लाख कोशिश न रंग लाएगी,
एक साहिल की तलाश में यह ज़िन्दगी बीत जाएगी...
क्या करूँ, मान लूं हार या करूँ संघर्ष आखिरी क्षण तक,
क्या होगा अंजाम यह तो तकदीर ही बताएगी........ 
 शेखर सुमन

Sunday, November 24, 2013

प्रवीण पाण्डेय .......... जलकर ढहना कहाँ रुका है


आशा नहीं पिरोना आता, धैर्य नहीं तब खोना आता,

नहीं कहीं कुछ पीड़ा होती, यदि घर जाकर सोना आता,

मन को कितना ही समझाया, प्रचलित हर सिद्धान्त बताया,
सागर में डूबे उतराते, मूढ़ों का दृष्टान्त दिखाया,

औरों का अपनापन देखा, अपनों का आश्वासन देखा,
घर समाज के चक्कर नित ही, कोल्हू पिरते जीवन देखा,

अधिकारों की होड़ मची थी, जी लेने की दौड़ लगी थी,
भाँग चढ़ाये नाच रहे सब, ढोलक परदे फोड़ बजी थी,

आँखें भूखी, धन का सपना, चमचम सिक्कों की संरचना,
सुख पाने थे कितने, फिर भी, अनुपातों से पहले थकना,

सबके अपने महल बड़े हैं, चौड़ा सीना तान खड़े हैं,
सुनो सभी की, सबकी मानो, मुकुटों में भगवान मढ़े हैं,

जिनको कल तक अंधा देखा, जिनको कल तक नंगा देखा,
आज उन्हीं की स्तुति गा लो, उनके हाथों झण्डा देखा,

सत्य वही जो कोलाहल है, शक्तियुक्त अब संचालक है,
जिसने धन के तोते पाले, वह भविष्य है, वह पालक है,

आँसू बहते, खून बह रहा, समय बड़ा गतिपूर्ण बह रहा,
आज शान्ति के शब्द न बोलो, आज समय का शून्य बह रहा,

आज नहीं यदि कह पायेगा, मन स्थिर न रह पायेगा,
जीवन बहुत झुलस जायेंगे, यदि लावा न बह पायेगा,

मन का कहना कहाँ रुका है, मदमत बहना कहाँ रुका है,
हम हैं मोम, पिघल जायेंगे, जलकर ढहना कहाँ रुका है?
                                ............ प्रवीण पाण्डेय

Thursday, November 21, 2013

Pallavi Chaoji Dharve ...... Maa

Maa

Life hit you hard, you trembelled, you cried, you fell... but you always stood upright..
For the two pairs of twinkling eyes u had always alight ...
A lot was dreamd, a lot was wished, a lot was hoped for...
And the Storm came.. tried to shatter it all.. But I know...
Mother.. You shielded us with your feathers to protect our dreams, we hopefully wished for...

You Held our hands to teach us right..
Pulled us back when we fell slight...
Taught us wisdom so we enlighten..
Stood awake, day and night... for our future bright..

You taught.. Life cannot defeat ,unless we withdraw..
But.. Fight back so hard that life itself withdraw...

Your eyes have witnessed colossal
Your heart has cried rivers
Your legs have ached immensely
But your back never leaned, For you held us above your shoulders..

You have been our everything and will always be ..
For we know.. We are your everything and will always be...

As till now.. together we have, yet again we will..
For I Know.. Thou shall give us the Will....

My heart feels profound, but I am short of Words..
Your Lord knows it all that you are my Lords..

I Love You MOM..

--Pallavi Chaoji Dharve


Tuesday, November 19, 2013

Pallavi Chaoji Dharve ........ Memories of the past

Memories of the past will never go away...

For we had the best, Who are now away...

Time is always difficult, but not to shed tears...

For they have always loved our smiles and cheers...

They don't walk together, but their thoughts do...

To remind us what we need to do...

My dear elders, You are our guide, our mentors...

Tears in your eyes will haze our contours...

Let us not be sad, but be glad...

For we have the memories of the BEST we had... 

--Pallavi Chaoji Dharve

Monday, November 18, 2013

---- कबीर

प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय !
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय !!

जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान !
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण !!

जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश !
जो है जा की भावना सो ताहि के पास !!

प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय !
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय !!

प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाये !
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाए !!
                                        ---- कबीर

Sunday, August 18, 2013

मोबाइल सचमुच कितना मोबाइल है.......... - गुलज़ार

मोबाइल सचमुच कितना मोबाइल है
एक कान पे दफ्तर पहना है,
और दूजे पर
घर रक्खा है -

सारे काम मैं
दाएं कान से करता हूं
और बाकी घर के बाएं से

दाएं कान से मैनेजर ने पकडा
खाना खाते हुए
एक जरूरी ख़त है सर:

गैरेज से एक फोन आया
फिर दाएं कान पे -
क्लच प्लेट सर, टूट गई है-
कार्बोरेटर में कचरा था-

बाएं कान पे बीप हुई-
बीवी से कहा के होल्ड करो
-वह न्यूयार्क से बोल रही थी-

सर जोड के बैठी औरतों में, जब
कोइ बच्चा रोये तो
छाती से लगा के उसकी मां,
कुछ देर अलग हट जाती है-
कुछ ऐसे ही मीटिंग में..
मोबाइल कान पे रख के कोई
मीटिंग से उठ जाता है!

इक मय्यत पर देखा,
कान लगाये कोई,
सरगोशी में बोल रहा था
शायद पूछ रहा हो
किसी फ़रिश्ते से
गया है जो, पहुंचा के नहीं?

एक हिदायत बार-बार
इक नंबर पर आ जाती है
आउट आफ़ रीच है,
बाद में कोशिश करके देखें,

ये नंबर शायद उनका है
...बडे मियां का!

- गुलज़ार

Sunday, August 11, 2013

परेशान कर दिया है, इस वकील के सवालों ने ...... 'अदा'

शुमार थे कभी उनके, रानाई-ए-ख़यालों में
अब देखते हैं ख़ुद को हम, तारीख़ के हवालों में

गुज़री बड़ी मुश्किल से, कल रात जो गुज़री है  
टीस भी थी इंतहाँ, तेरे दिए हुए छालों में 

बातों का सिलसिला था, निकली बहस की नोकें 
फिर उलझते गए हम, कुछ बेतुके सवालों में

सागर का क्या क़सूर, वो चुपचाप ही पड़ा था
उसको डुबो दिया मिलके, चंद मौज के उछालो ने 

हूँ गूंगी मैं तो क्या 'अदा', इल्ज़ाम गाली का है 
परेशान कर दिया है, इस वकील के सवालों ने

कुछ होंठ सूखे हुए थे, और थे कुछ प्यासे हलक 
पर गुम गईं कई ज़िंदगियाँ, साक़ी तेरे हालों में
                                                          - 'अदा'
.........................................................................................................................................................
रानाई-ए-ख़यालों=कोमल अहसास
साक़ी=शराब बाँटने वाली
हाला=शराब की प्याली

Saturday, August 10, 2013

अनु -- प्यार की परिभाषा



तुम्हारे लिए प्यार था
ज़मीं से फलक तक साथ चलने का वादा
और मैं खेत की मेड़ों पर हाथ थामे चलने को
प्यार कहती रही....
तुम  चाँद तारे तोड़ कर
दामन में टांकने की बात को प्यार कहते रहे
मैं तारों भरे आसमां तले
बेवजह हँसने और  बतियाने को
प्यार समझती रही….
तुम सारी दुनिया की सैर करवाने को
प्यार जताना कहते,
मेरे लिए तो  पास के मंदिर तक जाकर
संग संग दिया जलाना प्यार था...
तुम्हें मोमबत्ती की रौशनी में
किसी आलीशान होटल में
लज़ीज़ खानाप्यार लगता था
मुझे रसोई में साथ बैठ,एक थाली से
एक दूजे को
निवाले खिलने में प्यार दिखा...

शहंशाही प्यार था तुम्हारा...बेशक ताजमहल सा तोहफा देता... मौत के बाद भी.

मगर मेरी चाहतें तो थी छोटी छोटी
कच्ची-पक्की
खट्टी मीठी.......चटपटी
ठीक  ही कहते थे तुम
शायद पागल ही थी मैं.
             - अनु 

Friday, June 28, 2013

ज़फ़र ---घर में वो मौजूद है और मैं घर-घर ढूंढता फिरता हूँ

हाल नहीं  कुछ  खुलता मेरा  कौन हूँ , क्या  हूँ , कैसा  हूँ 
मस्त   हूँ  या  हुशियारों   में  हूँ  , नादां  हूँ  , या  दाना  हूँ 
कान  से  सबकी सुनता हूँ और मुंह से कुछ नहीं कहता हूँ 
होश  भी  है  बेहोश  भी हूँ  कुछ  जागता हूँ  कुछ सोता हूँ 
कैसा रंज और कैसी  राहत किस  की शादी किस का ग़म 
यह  भी  नहीं  मालूम  मुझे  मैं  जीता  हूँ  या  मरता   हूँ 
कारे - दीं  कुछ  बन   नहीं   आता  दावा  है  दींदारी   का 
दुनिया  से  बेजार  हूँ लेकिन रखता  ख्वाहिशे - दुनिया हूँ 
यार  हो  मेरे  दिल  में  और  मैं  का'बा  में  बुतखाने   में 
घर  में  वो  मौजूद है  और  मैं घर - घर ढूंढता फिरता हूँ 
                                                                                -ज़फ़र 

Tuesday, June 25, 2013

प्रवीण पाण्डेय - जीने का अधिकार मिला है

जीने का अधिकार मिला है

एकाकी कक्षों से निर्मित, भीड़ भरा संसार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।

सोचा, मन में प्यार समेटे, बाट जोहते जन होंगे,
मर्यादा में डूबे, समुचित, शिष्ट, शान्त उपक्रम होंगे,
यात्रा में विश्रांत देखकर, मन में संवेदन होगा,
दुविधा को विश्राम पूर्णत, नहीं कहीं कुछ भ्रम होगा,
नहीं हृदय-प्रत्याशा को पर सहज कोई आकार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।१।।

सम्बन्धों के व्यूह-जाल में, द्वार निरन्तर पाये हमने,
घर, समाज फिर देश, मनुजता, मिले सभी जीवन के पथ में,
पर पाया सबकी आँखों में, प्रश्न अधिक, उत्तर कम थे,
जीते आये रिक्त, अकेले, आशान्वित फिर भी हम थे,
प्रस्तुत पट पर प्रश्न प्रतीक्षित, प्रतिध्वनि का विस्तार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।२।।

जिसने जब भी जितना चाहा, पूर्ण कसौटी पर तौला है,
सबने अपनी राय प्रकट की, जो चाहा, जैसे बोला है,
संस्कारकृत सुहृद भाव का, जब चाहा, अनुदान लिया,
पृथक भाव को पर समाज ने, किञ्चित ही सम्मान दिया,
पहले निर्मम चोटें खायीं, फिर ममता-उपकार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।३।।

जीवन का आकार बिखरता, जीवन के गलियारों में,
सहजीवन की प्रखर-प्रेरणा, जकड़ गयी अधिकारों में,
परकर्मों की नींव, स्वयं को स्थापित करता हर जन,
लक्ष्यों की अनुप्राप्ति, जुटाते रहते हैं अनुचित साधन,
जाने-पहचाने गलियारे, किन्तु बन्द हर द्वार मिला है,
द्वन्दों से परिपूर्ण जगत में, जीने का अधिकार मिला है ।।४।। 

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Monday, June 24, 2013

मुकेश कुमार सिन्हा -- दूरियां

दूरियां
हर एक से बना कर रखिये
अपनों के दरमियाँ भी
थोड़ा फासला तो रखिए
.
दोस्त या दुश्मन
की परख तो रखिये
दिल की किताब में
हर एक का हिसाब तो रखिये
.
जिंदगी
में है कई रंज-औ-गम
पर कुछ गमो को
हमराज बना कर तो रखिये
.
दोस्ती है
तो गुफ्त-गु और दिल-ऐ-बयां भी कीजिये
मगर
कुछ तो पर्दा भी रखिये
.
दिल है तो
गमो का बादल भी होगा
पर खुशियों के बरसात
बरसा कर के तो रखिये
                         - मुकेश कुमार सिन्हा 

Wednesday, June 19, 2013

आशीष राय - बधशाला

यह कुटुंब, धन, धाम कहाँ है , अरे साथ जाने वाला
जिसके पीछे तूने पागल , क्या अनर्थ न कर डाला
नित्य देखता है तू फिर भी , जान बूझकर फंसता है
"जग जाने " पर ही यह जग है , सो जाने पर बधशाला.

जितना ऊँचा उठना चाहे , उठ जाये उठने वाला
नभ चुम्बी इन प्रासादों को , अंत गर्त में ही डाला
जहाँ हिमालय आज खड़ा है , वहां सिधु लहराता था
लेती है जब करवट धरती, खुल जाती है बधशाला

खिसक हिमालय पड़े सिन्धु में , लग जाये भीषण ज्वाला
गिरे ! टूट नक्षत्र भूमि नभ , टुकड़े टुकड़े कर डाला
अरे कभी मरघट में जाकर , सुना नहीं प्रलयंकर गान
ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं ये बधशाला
                                                                -आशीष राय 

Tuesday, June 18, 2013

"दिनकर" ........ उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!
बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे!

भींगे भुवन सुधा-वर्षण में,
उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में;

भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

गरजे गुरु-गंभीर घनाली,
प्रमुदित उड़ें मराल-मराली,

खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

बरसे रिम-झिम रंग गगन से,
भींगे स्वप्न निकल मन-मन से,

करे कल्पना की तरंग पर मानव नर्तन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

जय हो, रंजित धनुष बढ़ाओ,
भू को नभ के साथ मिलाओ,

भरो, भरो, भू की श्रुति में निज अनुरंजन स्वन हे!
उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे!

"दिनकर"

Friday, June 7, 2013

ज़फ़र --- बराबर अपना है हर एक यार से इख़लास

बराबर अपना  है  हर एक  यार से इख़लास 
न ये कि चार से नफरत तो चार से इख़लास 
जो  मेरा  दुश्मने-जाँ  है वो है उसी का दोस्त 
करे है कब वो  किसी  दोस्तदार से इख़लास 
न  बोल  मुझसे  तू  नासेह  कि मैं हूँ दीवाना 
तू  होशियार  है  कर  होशियार से  इख़लास 
बगैर  रंजो-मुसीबत  सिवाय  हसरतो-यास 
रखे  है  कौन  दिले - बेक़रार  से   इख़लास 
गुरुर  था  हमें  क्या  अपनी  पारसाई  का !
न था हमारा जब इस बादा-ख़्वार से इख़लास 
जहाँ में जितने कि हैं बदनसीबो-बदकिस्मत 
"ज़फ़र"वो रखते हैं इस बद-शुआर से इख़लास 
                                                           -ज़फ़र 

Friday, May 10, 2013

कैफ़ी आज़मी : बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये

बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं
अपनी यादों में बसा रक्खे हैं

दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो
कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं

बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें

गर खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उस के बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद

तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ क्या
अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उस की न इबादत होगी

वह्शते-बुत शिकनी देख के हैरान हूँ मैं
बुत-परस्ती मिरा शेवा है कि इंसान हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम खुदा होता है

                                                   - कैफ़ी आज़मी 

Friday, April 19, 2013

बच्चन .........क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
         क्या करूँ ?
मैं दुखी जब - जब हुआ 
संवेदना तुमने दिखाई ,
मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा 
रीति दोनों ने निभाई , 
किंतु इस आभार का अब 
हो उठा है बोझ भारी ;

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
         क्या करूँ ?

एक भी उच्छ्वास मेरा 
हो सका किस दिन तुम्हारा ?
उस नयन से बह सकी कब 
इस नयन की अश्रुधारा ?
सत्य को मूँदे रहेगी 
शब्द की कब तक पिटारी ?

क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी ?
         क्या करूँ ?

                              ........बच्चन 

Saturday, March 9, 2013

गमगुसारी


दोस्त मायूस न हो 
सिलसिले टूटते बनते ही रहे हैं आखिर 
तेरी पलकों पे सरअश्कों के सितारे कैसे
तुझको गम है तेरी महबूब तुझे मिल न सकी 
और जो जीस्त तराशी थी तेरे ख्वाबों ने
आज वो ठोस हक़ायक़ में कहीं टूट गयी
तुझको मालूम है मैंने भी मुहब्बत की थी
और अंजामे-मुहब्बत भी है मालूम तुझे 
किसने पायी है भला जीस्त की तल्खी से निजात 
चारो-नाचार ये जहराब सभी पीते हैं  
जां-सपारी के फरेबिन्दा फसानों पे न जा 
कौन मरता है  मुहब्बत में सभी जीते हैं 
वक़्त हर जख्म को हर गम को भुला देता है 
वक़्त के साथ ये सदमा भी गुज़र जायेगा 
और ये बातें जो दुहराई हैं मैंने इस वक़्त 
तू भी एक रोज इन्हीं बातों को दुहरायेगा 
दोस्त मायूस न हो.
                      -अहमद राही  
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Friday, March 8, 2013

किराये का है ये मकां ........ - कुंअर बेचैन

किराये का है ये मकां छोड़ते हैं । 
ऐ मालिक ,तेरा ये जहां छोड़ते हैं । 

ये क्यूँ कह दिया इश्क़ को छोड़ दें हम , 
लो हम जिस्म से अपनी जां छोड़ते हैं । 

तो ये जानिये बाग़ में कुछ कमी है ,
परिंदे अगर आशियां छोड़ते हैं । 

भले ही वो केंचुल बदल कर भी आएं  ,
मगर लोग डंसना कहां छोड़ते हैं । 

किसी के मुबारक कदम लफ्ज़ बनकर ,
मेरी हर गज़ल में निशां छोड़ते हैं । 

कहां ऐसे बेटों को खुशियां मिलेंगी ,
जो रोती हुई अपनी मां छोड़ते हैं । 

न तू हीर है और न रांझा हूं मैं ही ,
चलो ,फिर भी एक दास्तां छोड़ते हैं । 

बड़े लोग भी बादलों की तरह ही ,
जमीं के लिए आस्मां छोड़ते हैं । 

उजाले जो दें उनकी कालिख न देखो ,
कि जलते दिये भी धुंआ छोड़ते हैं । 
                               - कुंअर बेचैन  

Wednesday, February 27, 2013

किसी की आँखों की नमी लिख रहा हूं......


कहीं पढ़ा था और मुझे बहुत अच्छी लगी थी ,पर वहाँ इसके शायर का नाम नहीं लिखा था इसलिए नाम नहीं दे पा रही हूँ । अगर किसी को पता हो तो कृप्या बता दें जिससे मैं नाम भी लिख सकूँ और श्रेय उचित व्यक्ति को मिल सके .......

किसी की आँखों की नमी लिख रहा हूं
बेजान उन अश्कों की गमी लिख रहा हूं

खिलते नहीं हैं फूल अब इस गुलशन में
अपने नाम कुछ बंजर ज़मीं लिख रहा हूं

मिलने को मिल जाये कायनात सारी
तू जो नहीं है,तेरी कमी लिख रहा हूं.....


बेजान उन अश्कों की गमी लिख रहा हूं
अपने नाम कुछ बंजर ज़मीं लिख रहा हूं 

                                        -अज्ञात