आज रहने दो यह गृहकाज
प्राण !रहने दो यह गृहकाज !
आज जाने कैसी वातास
छोडती सौरभ-श्लथ उछवास,
प्रिये ,लालस-सालस वातास ,
जगा रोओं में सौ अभिलाष !
आज उर के स्तर-स्तर में प्राण !
सहज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार ,
दृगों में मधुर स्वप्न संसार ,
मर्म में मदिर स्पृहा का भार !
शिथिल,स्वप्निल पंखडियां खोल ,
आज अपलक कलिकाएँ बाल ,
गूंजता भूला भौंरा डोल,
सुमुखी ,उर के सुख से वाचाल !
आज चंचल - चंचल मन प्राण ,
आज रे ,शिथिल-शिथिल तन-भार ,
आज दो प्राणों का दिन - मान
आज संसार नहीं संसार !
आज क्या प्रिये सुहाती लाज !
आज रहने दो सब गृहकाज !
साभार : सुमित्रानंदन पन्त