Saturday, April 14, 2012

जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा

जुदा  हों  यार  से  हम  और न हो रक़ीब जुदा
है  अपना - अपना  मुकद्दर जुदा ,नसीब जुदा


तिरी गली से निकलते ही अपना दम निकला
रहे   हैं  क्योंकि  गुलिस्ता   से  अंदलीब  जुदा

फ़िराके-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही  हो  न  हो  वतन  से  कोई  ग़रीब  जुदा

करें जुदाई का किस-किस का रंज हम ऐ "ज़ौक"
कि  होने  वाले  हैं  हम  सबसे  अनक़रीब  जुदा  
                                                        -"ज़ौक"

3 comments:

  1. बहुत खूब लिखा है |बधाई

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  2. जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा
    है अपना - अपना मुकद्दर जुदा ,नसीब जुदा

    ये खास अदा जौंक साहब की
    बहुत सुंदर
    क्या कहने

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  3. एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया।

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