Sunday, October 28, 2012

ख़ुदा से हुस्न ने इक रोज़ यह सवाल किया |..... - इक़बाल

ख़ुदा से हुस्न ने इक रोज़ यह सवाल किया |
जहां में क्यों  न मुझे  तूने लाज़वाल किया ?
मिला जवाब  कि तस्वीरखाना  है  दुनिया |
शबे - दराज़  अदम  का फ़साना है दुनिया ||
हुई  है  रंगे - तग़य्युर से जब नमूद इसकी |
वही हसीं  है  हक़ीक़त  ज़वाल है  जिसकी ||
कहीं  करीब  था  ये  गुफ़्तगू क़मर ने सुनी |
फ़लक पे आम हुई अख्तरे - सहर ने सुनी ||
सहर ने तारे से सुन कर सुनाई शबनम को |
फ़लक की बात बता दी ज़मीं के महरम को ||
फिर आये फूल के आंसू पयामे - शबनम से |
कली का नन्हा-दिल दिल खून हो गया ग़म से ||
चमन  से  रोता  हुआ  मौसमे - बहार  गया |
शबाब  सैर  को  आया  था , सोगवार  गया ||
                                                       - इक़बाल 
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लाज़वाल :अमर
शबे - दराज़ : लम्बी रात 
अदम : मृत्यु 
रंगे - तग़य्युर :परिवर्तनशीलता के रंग से 
ज़वाल :मिटना 
क़मर :चाँद 
अख्तरे - सहर : सुबह का तारा 
महरम :भेदी 

Saturday, October 27, 2012

बताता जा रे अभिमानी ! ....- महादेवी वर्मा

बताता जा रे अभिमानी !

कण-कण उर्वर करते लोचन 
स्पंदन  भर  देता  सूनापन 
जग का धन मेरा दुःख निर्धन ;
तेरे वैभव की भिक्षुक या 
कहलाऊँ रानी !
बताता जा रे अभिमानी !

दीपक सा जलता अन्तस्तल 
संचित कर आँसू के बादल 
लिपटा है इससे प्रलयानिल ;
क्या यह दीप जलेगा तुझसे 
भर हिम का पानी ?
बताता जा रे अभिमानी !

चाहा था तुझमें मिटना भर 
दे डाला बनना मिट - मिटकर 
यह अभिशाप दिया है या वर ;
पहली मिलन कथा हूँ या मैं 
चिर - विरह कहानी ! 
बताता जा रे अभिमानी !
           - महादेवी वर्मा 

Saturday, October 13, 2012

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के ......

दोनों  जहान तेरी  मोहब्बत  में  हार  के 
वो जा  रहा  है  कोई  शबे-गम गुज़ार के 

वीरां है मैकदा  ख़ुमो-सागर(1)  उदास है 
तुम क्या गये कि रूठ गये दिन बहार के 

इक फुर्सते-गुनाह मिली ,वो भी चार दिन 
देखे  हैं  हमने  हौसले  परवर  दिगार  के 

दुनियां ने तेरी  याद से बेगाना कर दिया 
तुझसे  भी दिलफरेब  हैं गम रोज़गार के 

भूले से  मुस्करा तो दिए थे वो आज फैज़ 
मत पूछ बल-बले दिले नाकर्दाकार(2) के 

                                                    -फैज़ 

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1 -शराब का प्याला और सुराही 
2-अनुभवहीन दिल 

Wednesday, October 10, 2012

तप रे !

तप रे , मधुर-मधुर मन !

विश्व-वेदना में तप प्रतिपल ,
जग-जीवन की ज्वाला में गल ,
बन अकलुष ,उज्ज्वल औ कोमल 
तप रे ,विधुर-विधुर मन !

अपने सजल-स्वर्ण से पावन 
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम 
स्थापित कर जग में अपनापन ,
ढल रे , ढल आतुर मन !

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन 
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन 
निज अरूप में भर स्वरूप , मन 
मूर्तिमान बन निर्धन !
गल रे , गल निष्ठुर मन ! 
                 -सुमित्रानन्दन पन्त 


लोग कहते हैं

लोग कहते हैं कि "धीरे-धीरे
वक्त हर जख्म को भर देता है"
तुम भी लोगों की कही बातों में आ जाती हो 
एक लम्हे के लिए 
मुज्महिल हो के यही सोचती होगी शायद 
"मेरे बचपन का वो साथी ,वही पागल लडका 
वो भी भूल गया होगा मुझे"
लोग कहते हैं कि "धीरे-धीरे 
वक्त हर जख्म को भर देता है"
बेसबब अपनी जफ़ाओं पे पशेमान न हो 
लोग कहते हैं - मगर 
ऐसा होता तो नहीं !
              -मुसहिफ 


Wednesday, May 23, 2012

"गॄहकाज"

आज रहने दो यह  गृहकाज 
प्राण !रहने दो यह गृहकाज !

आज   जाने   कैसी   वातास 
छोडती सौरभ-श्लथ उछवास,
प्रिये ,लालस-सालस वातास ,
जगा रोओं में सौ  अभिलाष !

आज उर के स्तर-स्तर में प्राण !
सहज सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार ,
दृगों   में   मधुर  स्वप्न   संसार ,
मर्म  में  मदिर  स्पृहा  का  भार !

शिथिल,स्वप्निल पंखडियां खोल ,
आज   अपलक   कलिकाएँ  बाल ,
गूंजता   भूला    भौंरा    डोल,
सुमुखी ,उर के सुख से  वाचाल !

आज   चंचल - चंचल   मन   प्राण ,
आज रे ,शिथिल-शिथिल तन-भार ,
आज  दो  प्राणों  का  दिन - मान 
आज  संसार  नहीं  संसार  !
आज क्या प्रिये सुहाती लाज !
आज रहने  दो  सब  गृहकाज !

                 साभार : सुमित्रानंदन पन्त 

Thursday, April 19, 2012

बे-सियाही न चला काम कलम का ऐ 'ज़ौक'

हम  हैं  और  साया तीरे  कूचे  की दीवारों का 
काम जन्नत में है क्या हम से गुनहगारों का 

मोहतसिब दुश्मने-जां गरचे है मयख्वारों का 
दीजै  इक  जाम  तो  है  यार  अभी  यारों का 

हाए वो आशिके-जांबाज़ कि इक मुद्दत तक 
ह्द्फे - तीर१  तुझ  से  कमांदारों   का 

चर्ख  पर२  बैठ  रहा  जान  बचा  कर  ईसा 
हो  सका  जब  न  मुदावा३  तेरे बीमारों का 

बे-सियाही न चला काम कलम का ऐ 'ज़ौक'
रू-सियाही४ ,सरो-सामां है सियह्कारों५  का 
                                                   -ज़ौक 
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१ : लक्ष्य 
२ :आकाश पर
३ :इलाज़
४ :बदनामी
५ :पापियों का 

Saturday, April 14, 2012

जुदा हों यार से हम और न हो रक़ीब जुदा

जुदा  हों  यार  से  हम  और न हो रक़ीब जुदा
है  अपना - अपना  मुकद्दर जुदा ,नसीब जुदा


तिरी गली से निकलते ही अपना दम निकला
रहे   हैं  क्योंकि  गुलिस्ता   से  अंदलीब  जुदा

फ़िराके-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही  हो  न  हो  वतन  से  कोई  ग़रीब  जुदा

करें जुदाई का किस-किस का रंज हम ऐ "ज़ौक"
कि  होने  वाले  हैं  हम  सबसे  अनक़रीब  जुदा  
                                                        -"ज़ौक"

Thursday, April 12, 2012

मज़े जो मौत के आशिक बयां करते

मज़े  जो  मौत  के  आशिक  बयां  करते 
मसीहो - खिज्र  भी  मरने की आर्ज़ू करते 

अगर ये जानते चुन-चुन के हम को तोड़ेंगे 
तो गुल कभी न तमन्ना- ए- रंगो-बू करते 

समझ ये दारो-रसन ,तारो-सोज़न ऐ मंसूर 
कि चाके - पर्दा हक़ीक़त का है रफ़ू  करते 

यकीं है सुब्हे-क़यामत को भी सुबूही-कश
उठेंगे ख़्वाब  से  साक़ी  , सुबू - सुबू  करते 
                                                         -ज़ौक

Saturday, January 21, 2012

उसे हमने बहुत ढूँढा , न पाया

उसे   हमने  बहुत  ढूँढा  ,  न   पाया 
अगर पाया तो खोज  अपना न पाया 

मुक़द्दर  ही  पे गर  सूदो - जियां(१) है 
तो  हमने  कुछ  यहाँ  खोया  न  पाया 

सुराग़े - उम्रे -रफ़्ता(२) हो तो क्योंकर 
कहीं जिसका निशाने - पा(३) न पाया 

कहे  क्या  हाए  जख्मे - दिल  हमारा 
दहन(४) पाया ,लबे-गोया(५) न पाया 

कभी तू , और  कभी  तेरा  रहा  गम 
गरज़  खाली  दिले - शैदा(६) न पाया 

नज़ीर उसका कहां आलम में ऐ 'जौक'
कोई   ऐसा   न   पाएगा  , न  पाया 
                                              -जौक
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 १.=लाभ-हानि 
२=बीती आयु का निशान
३=पदचिन्ह 
४=मुँह
५=बोलने वाले होंठ 
६=आसक्त मन