दिये से मिटेगा न मन का अन्धेरा
धरा को उठाओ गगन को झुकाओ !!
बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है ,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है ,
न फिर सूर्य रूठे ,न फिर स्वप्न टूटे
ऊषा को जगाओ ,निशा को सुलाओ !
दिये से मिटेगा न मन का अन्धेरा
धरा को उठाओ गगन को झुकाओ !!
सृजन-शान्ति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रौशनी गीत गाये
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा ,
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए ,
घृणा बढ़ रही है ,अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ ,दनुज को मिटाओ !
दिये से मिटेगा न मन का अन्धेरा
धरा को उठाओ गगन को झुकाओ !!
बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में ,
किया कैद जिसने उसे शक्ति-छल से
स्वयं उड़ गया वह धुआँ बन पवन में ,
न मेरा-तुम्हारा ,सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ उसे भी बुलाओ !
दिये से न मिटेगा न मन का अन्धेरा
धरा को उठाओ ,गगन को झुकाओ !!
- नीरज