Wednesday, March 23, 2011

दो बांस , तीन डंडों से बनी .......

दो  बांस , तीन  डंडों   से  बनी  नसेनी यह 
जो खडी सेहन का जोड़ रही छत से  नाता ,
धरती-आकाश  बने  जब से तब से इसपर
हर  एक यहाँ चढ़-उतर , उतर-चढ़  जाता !

आंधियां   घिरीं   तूफ़ान   चले , टूटे   पहाड़  
बदला जग ,बदली सदियाँ ,बदले सिंहासन,
पर अब तक बदल नहीं पाया है क्षण भर को 
इस  नयी पुरानी पीढी  का संसृति - शासन !

कोई   आँगन  में , कोई  पहली   सीढी  पर 
कोइ  हो   खडा  दूसरी    पर   पछताता   है 
पग धरने को  है  कोई  विकल  तीसरी  पर 
कोई छत पर जा कर निज सेज बिछाता है 

अचरज  होता  है  कैसे  बस  दो बांसों पर 
है  सधी सृष्टि इतनी विशाल ,इतनी भारी !
कैसे केवल  घुन  लगे  तीन  इन  डंडों  पर 
चढ़-उतर रही है युग-युग से दुनिया सारी !

है  यह  भी  एक  प्रश्न  मैं  पूछ  रहा  खुद से 
क्या  सबका  छत  पर जाना यहाँ ज़रूरी है ?
आना है क्या अनिवार्य सभी का आँगन में ?
क्या  एक  नसेनी  सिर्फ़  ज़िन्दगी  पूरी  है ?


उत्तर  देता  आकाश  कि  चढ़ना  ही जीवन 
औ ' मृत्यु   उतरने  का   ही एक  बहाना  है 
है जन्म-मरण बस तीन सीढियों  की  दूरी 
सबको  ऊपर   जाना  है  ,  नीचे  आना   है !


             साभार :नीरज   

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