Thursday, March 17, 2011

आंखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था .......

आंखों  का  था  क़ुसूर  न  दिल  का  क़ुसूर था 
आया   जो    मेरे    सामने    मेरा   ग़ुरूर   था 

वो   थे  न   मुझसे   दूर  न  मैं  उनसे  दूर  था
आता  न  था  नज़र  तो  नज़र  का  क़ुसूर  था

कोई    तो     दर्दमंदे  -   दिले  -  नासुबूर    था 
माना कि तुम न  थे , कोई  तुम - सा ज़रूर था 

लगते    ही    ठेस   टूट   गया   साज़े  -  आरज़ू
मिलते ही  आंख शीशा - ए - दिल चूर - चूर था 

ऐसा    कहां    बहार   में   रंगीनियों  का   जोश 
शामिल  किसी  का  खूने - तमन्ना  ज़रूर  था 

साक़ी की चश्मे -मस्त का क्या कीजिये बयान 
इतना   सरूर   था   कि   मुझे   भी   सरूर   था 

जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया 
उस दिल  में  इक  छुपा  हुआ  नश्तर  ज़रूर  था 

देखा  था  कल ' जिगर ' को   सरे - राहे - मैक़दा
इस  दर्ज़ा  पी  गया   था   कि  नशे  में  चूर   था 

                       साभार :जिगर मुरादाबादी 
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दर्दमंदे-दिले-नासुबूर =अधीर ह्रदय का हितैषी 
सरे-राहे-मैक़दा =मधुशाला के रास्ते में 


4 comments:

  1. jigar ji panktiya padwane ke liye dhanywaad...

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  2. जिगर साहब की इस लाजवाब रचनाको पढवाने काआभार।

    .......
    प्रेम एक दलदल है..
    ’चोंच में आकाश’ समा लेने की जिद।

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  3. आज किस मुकाम में हम आ गए हैं
    पास है मंजिल फिर भी चले जा रहे हैं
    कभी हम खुद को कभी उनको
    हम ये समझा रहे हैं :)
    बहुत खूबसूरत दोस्त जी :)

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