Monday, March 14, 2011

शायरे - फ़ितरत हूं मैं ........

शायरे - फ़ितरत हूं  मैं ,जब फ़िक्र फ़रमाता हूं  मैं 
रूह   बन   कर  ज़र्रे - ज़र्रे   में    समा  जाता    हूं

आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूं मैं 
जैसे हर  शै  में  किसी  शै  की  कमी  पाता  हूं  मैं 

जिस क़दर अफसाना-ए-हस्ती को दोहराता हूं मैं 
और  भी  बेगाना - ए - हस्ती   हुआ  जाता हूं   मैं 

जब   मकानों - लामकां  सब  से  गुज़र   जाता   हूं  मैं 
अल्लाह-अल्लाह तुझको खुद अपनी जगह पाता हूं मैं 

हाय  री  मजबूरियां  ,  तर्के -  मोहब्बत  के   लिए 
मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूं मैं 

मेरी  हिम्मत   देखना  ,  मेरी    तबीयत  देखना 
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूं मैं 

हुस्न को क्या दुश्मनी  है , इश्क़ को  क्या बैर  है 
अपने  ही  क़दमों  की  खुद ही ठोकर खाता हूं मैं 

तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर 
ले उठा  जाता  हूं  जालिम , ले  चला जाता  हूं मैं 

                 साभार :जिगर मुरादाबादी 
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शायरे-फ़ितरत =प्रकृति का शायर 
मकानो-लामका =स्थान 
  

1 comment:

  1. पढ़ते हुए लगा था कि यह ग़ज़ल सुनी हुई है ...
    देखा तो जिगर मुरादाबादी जी की है ...
    शुक्रिया फिर से याद दिलाने के लिए !

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