Tuesday, February 15, 2011

" इकबाल "

तेरे   इश्क़  की   इंतेहा  चाहता   हू 
मेरी सादगी  देख  क्या  चाहता  हू |
सितम  हो कि वादा - ए - बेहिज़ाबी
कोई बात सब्र - आज़मा चाहता हू |
ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को 
कि मैं आपका सामना चाहता हू  |
कोई दम का मेहमां हू ए अहले-महफ़िल 
चिराग़ - सहर  हू  बुझना  चाहता  हू |
भरी बज़्म में राज़  की बात कह दी 
बड़ा बेअदब  हू सज़ा चाहता हू |


       साभार : इक़बाल

2 comments:

  1. अच्‍छी गजल। इकबाल जी की इस गजल पर किसी शायर का एक शेर याद आ गया,
    'चाहे कितने भी कर लो जुल्‍मो-सितम,
    मुझको मंजूर है हर सजा आपकी।'

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  2. बहुत अच्छी लगी इकबाल साहब की यह गज़ल.

    सादर

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