Thursday, February 17, 2011

मिलाये खाक में गर वह ........

मिलाये ख़ाक में गर वह सितम शआर मुझे 
बला से समझे  मगर अपना खाकसार  मुझे
वह  गरचे  दुश्मने - सब्रो - क़रार   है लेकिन 
न देखूं जब  तलक  उसको नहीं क़रार  मुझे 
शुमार  हो न  सके जिनका  ताबरोज़ शुमार
दिए  फ़लक  ने   है  व  दाग़  बेशुमार   मुझे
वुफूरे - गिरिय  ने   मेरे  बचा  लिया  वरना 
जला चुकी थी मेरी  आहे - शोला -बार मुझे 
खुली  हुई   है   मेरी  जेरे - खाक  भी  आंखे 
किसी का आह यहाँ तक  है इन्तिज़ार मुझे 
मज़ा तो  यह है  कि  होते   हैं  मुझसे  ख़फा 
तो और आता है उन पर  ज़्यादा  प्यार मुझे 
ज़फ़र जहाँ में करूं  किसको राज़दार अपना 
कि इश्क़  से नहीं  अपना  भी एतिबार मुझे  

    साभार : ज़फ़र 
     
    ..................................................................
सितम शआर =अत्याचारी 
ताबरोज़ शुमार = प्रलय के दिन तक 
वुफूरे - गिरिय =आंसुओं की अधिकता 
जेरे ख़ाक =कब्र में 


6 comments:

  1. चुन-चुन कर शब्द सँजोये हैं यहाँ।

    ज़फ़र जहाँ में करूं किसको राज़दार अपना
    कि इश्क़ से नहीं अपना भी एतिबार मुझे

    एक लाजबाब रचना ज़फ़र की,,,,,,,,,,,,

    प्रस्तुति के लिये आभार

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  2. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (19.02.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.uchcharan.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  3. सुंदर प्रस्तुति , आभार

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  4. बेहद ही उम्दा।

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  5. शायद आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार के चर्चा मंच पर भी हो!
    सूचनार्थ

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