Sunday, February 27, 2011

" जब तेरी याद आयी ........"

ज़ुल्फ़ पर गीत  लिखा , शेर नज़रों पै  कहा 
बन गई खुद ही ग़ज़ल -जब तेरी याद आई |

ख़ुशबू बन-बन के उड़ी
नींद   रातों   की   मेरी
जब   हवा   चूम   गई
मेहंदी  हाथों  की  तेरी
बरसे हर सिम्त केवल -जब तेरी याद आई |

एक जोगिन की तरह 
साँस  हर  गाने  लगी,
शक्ल नज़रों में  कोई
आने और जाने  लगी,
घर   बना   राजमहल -  जब तेरी याद आई |
नाम जब  तेरा  लिया
जल उठे दिल में दिए,
पास  जब  पाया  तुझे
काले  दिन  गोरे   हुए 
गई दुनिया  ही  बदल- जब  तेरी  याद  हुई |  

                साभार : नीरज  

"किस को भेजे वह यहां ......."

आसमां पे  है  ख़ुदा और  ज़मीं पे  हम 
आजकल वह इस तरफ़ देखता है कम 

आजकल  किसी  को वह टोकता  नहीं 
चाहे  कुछ  भी  कीजिये  रोकता   नहीं 
हो  रही  है  लूट  मार  फट रहे   हैं  बम 
आसमां पे  है  ख़ुदा  और  ज़मीं पे हम 

किस  को  भेजे  वह यहां ख़ाक  छानने 
इस   तमाम  भीड़   का   हाल   जानने 
आदमी हैं  अनगिनत  देवता   हैं  कम 
आसमां पे  है  ख़ुदा और  ज़मीं  पे  हम 

इतनी   दूर  से   अगर   देखता  भी   हो 
तेरे   मेरे    वास्ते    क्या     करेगा    वो 
ज़िंदगी है अपने-अपने बाजुओं का दम 
आसमां  पे  है ख़ुदा  और  ज़मीं  पे  हम 

         साभार : साहिर 

Friday, February 25, 2011

"इस तपिश का है मज़ा ...."

इस तपिश का है मज़ा दिल  ही  को हासिल होता 
काश मैं इश्क़  में सर - ता - ब - क़दम दिल होता 

करता  बीमारे - मोहब्बत  का  मसीहा जो  इलाज़ 
इतना दिक़  होता  कि  जीना  उसे मुश्किल  होता 

आप  आइना - ए - हस्ती  में  है  तू  अपना   हरीफ़
वर्ना   यां   कौन   था   जो    तेरे   मुकाबिल   होता 

होती गर उक्दा - कुशाई न  यदे - अल्लाह के साथ 
जोक हल क्योंकि मिरा उक्दा - ए - मुश्किल  होता 

       साभार : ज़ौक
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तपिश =जलने का 
सर - ता - ब - क़दम = सर से पांव तक 
हरीफ़ = शत्रु 
उकदा - कुशाई =समस्या का समाधान 
उक्दा - ए - मुश्किल =कठिन समस्या 

"जो ज़ीस्त को न समझे ......."

जो ज़ीस्त को न समझें ,जो मौत  को न जाने 
जीना उन्हीं का जीना , मरना उन्हीं का मरना 

दरिया  की  ज़िंदगी  पर   सदकें  हज़ार  जानें 
मुझको  नहीं  गवारा  साहिल की मौत  मरना 

कुछ आ चली है आहट  उस पाए -नाज़ की सी 
तुझ पर खुदा की रहमत ,ऐ  दिल ज़रा ठहरना 

   साभार : जिगर मुरादाबादी 
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ज़ीस्त = जीवन 
पाए - नाज़ = प्रेयसी के पैरों की आहट

   

Thursday, February 24, 2011

"मोहब्बत तर्क की ......

मोहब्बत  तर्क  की  मैंने , गिरेबां   सी   लिया   मैंने 
ज़माने ! अब तो खुश हो ,ज़हर ये भी  पी लिया मैंने 

अभी ज़िंदा हूं लेकिन सोचता  रहता  हूं  ख़लवत  में 
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी  लिया मैंने 

उन्हें अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है 
कि कुछ मुद्दत हसीं ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैंने 

बस अब तो दामने - दिल  छोड़  दो  बेकार  उम्मीदों 
बहुत दुख सह लिए मैंने , बहुत  दिन जी लिया  मैंने 

    साभार : साहिर लुधियानवी 

"जब कोई कहता है .........."

जब  कोई  कहता  है   हस्ती  को  हस्ती  खूब   है 
उसकी गफ़लत पर फ़ना उस वक़्त हँसती खूब है 
तौबा  है  साकी  नहीं  पीने   का  मैं  जामे - शराब 
मुझको अपनी बादा- ए- वहदत की मस्ती ख़ूब है 
मुल्क  दुनिया की  तो आबादी  है  वीराना तमाम 
और  बसती  है  जहाँ   इक  ख़ल्क़ बसती ख़ूब  है 
'ज़फ़र'  आंखें  कह  देती  हैं तेरी , क्या छुपाता  है 
मए- उल्फ़त की कैफ़ियत छुपाये से  नहीं  छुपती 

           साभार : ज़फ़र 
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हस्ती : अस्तित्व
फ़ना : मृत्यु 
ख़ल्क़ : सृष्टि 

" सांस लो या खुश रहो "

क़सम  उस  मौत  की  उठती  जवानी  में जो आती है 
उरूसे - नौ  को   बेवा , मां  को   दीवाना    बनाती    है 

जहां   से  झुटपुटे   के  वक़्त  इक  ताबूत  निकला  हो 
क़सम उस शब की जो पहले-पहल उस घर में आती है 

अज़ीजो  की   निगाहें   ढूढती   हैं   मरने   वालों   को 
क़सम उस सुब्ह की जो ग़म का ये मंजर दिखाती  हैं 

क़सम साइल के उस एहसास की जब देख कर उसको 
सियाही   दफ़अतन   कंजूस    के  माथे   पे  आती   है 

क़सम उन   आंसुओं की मां की आंखो से जो  बहते  हैं 
जिगर  थामे  हुए   जब  लाश  पर   बेटे  की  आती   है 

क़सम  उस  बेबसी  की  अपने  शौहर  के  जनाजे  पर 
कलेजा  थाम  कर  जब  ताजा  दुल्हन सर झुकाती  है 

नज़र   पड़ते  ही  इक  जीमर्तबा  मेहमां  के  चेहरे   पर 
क़सम उस शर्म की मुफ़लिस की आंखों में जो आती है 

कि ये  दुनिया  सरासर  ख्वाबे  और  ख्वाबे - परीशां  है 
'खुशी'  आती  नहीं  सीने  में  जब  तक  सांस  आती  है 

           साभार : जोश मलीहाबादी 
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उरूसे - नौ = नई दुल्हन 
ताबूत =अर्थी 
साइल के =सवाली के 
दफ़तन = एकाएक 
जीमर्तबा =धनाढ्य 

Wednesday, February 23, 2011

"नादां - कोशिश"

घंटों बैठी सोचती हूं की कौन सी धड़कन नज़्म करूं 
कौन सा रंग मुट्ठी में भर लूं 
किस   लम्हे   को  कैद   करूं

सोच की इस  नादां  कोशिश  पे  बैठी - बैठी  सोचती हूं
किसने  लम्हे क़ैद  किये  या ख़ुशबू  को  पाबन्द किया   
लफ़्ज़ों के बोसीदा  जाल  से  कौन  रंग को थाम  सका 

आज तो रूह उस दौर में है जिस दौर का कोई नाम नहीं 
एक घना  धंधलका हर  सू 
कोई सुबह ,कोई शाम नहीं 

मौसम की सांय - सांय में सन्नाटा - सन्नाटा है 
बारिश ने पायल  तो   पहनी 
पर    कोई     झंकार     नहीं 
धड़कन के लब तो हिलते हैं
पर    कोई    आवाज़    नहीं 

हर शेर है  भीगा - भीगा सा और  नज़्म  है रूठी - रूठी सी 
इस बोझलपन को ओढ़-लपेट ,चुपचाप मैं घंटों सोचती हूं 
अब कौन सी धड़कन नज़्म करूं
और  किस  लम्हे  को  क़ैद  करूं 

        साभार : मीना कुमारी 

Monday, February 21, 2011

यूं ही तेरी राह्गुज़र से .......

यूं   तेरी  राहगुज़र  से ,  दीवानावार   गुज़रे
कांधे पे अपने रख के अपना  मज़ार  गुज़रे 

बैठे हैं रास्ते में बयाबान-ए-दिल सजा  कर 
शायद इसी तरफ़ से इक दिन बहार  गुज़रे 

दार-ओ-रसन से दिल तक,सब रास्ते अधूरे
जो  एक  बार  गुज़रे , वो  बार - बार   गुज़रे

बहती हुई यह  नदिया , धुलते  हुए किनारे
कोई  तो  पार  उतरे ,  कोई  तो  पार  गुज़रे 

मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ,बैठे जो थक-थका कर 
बोला  हर  इक  मिनारा ,"तुझ  से  हज़ार  गुज़रे "

कुर्बान इस नज़र पे , मरियम की सादगी भी 
साये से जिस नज़र के ,सौ करदिगार  गुज़रे 

अच्छे लगे  हैं दिल को तेरे गिले  भी लेकिन 
तू दिल ही हार  गुज़रा , हम जान हार  गुज़रे 

मेरी   तरह   संभाले   कोई   जो   दर्द   जानूं 
इक बार दिल से हो  कर परवरदिगार  गुज़रे 

          साभार : मीना कुमारी 
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दार-ओ-रसन से =फ़ांसी के तख्ते से 
ज़ेर-ए-साया =छाया में 

    

Saturday, February 19, 2011

" हर इक सूरत हर इक तस्वीर ........"

हर इक सूरत हर इक तस्वीर मुबहम होती जाती है
इलाही , क्या  मिरी  दीवानगी  कम  होती जाती  है 

ज़माना  गर्मे -  रफ्तारे  -  तरक्क़ी   होता  जाता  है 
मगर इक चश्मे -शायर है की पुरनम होती जाती है 

यही    जी   चाहता   है   छेड़ते    ही   छेड़ते   रहिये 
बहुत दिलकश अदाए -हुस्ने -बरहम होती जाती है 

तसव्वुर  रफ़्ता - रफ़्ता इक सरापा बनाता जाता है
वो इक शै जो मुझी में है ,मुजस्सिम होती जाती है 

वो रह-रहकर गले मिल-मिलके रुख़सत होते जाते है
मिरी आँखों से  या  रब ! रौशनी  कम  होती जाती  है 

"जिगर " तेरे सुकूते - ग़म ने ये क्या कह दिया उनसे 
झुकी  पड़ती  है  नज़रे ,आंख   पुरनम  होती  जाती  है

     साभार : जिगर मुराबादी 

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मुबहम =अस्पष्ट 
चश्मे - शायर =शायर की आंख
अदाए-हुस्ने-बरहम =नाराज़गी में सौन्दर्य की अदा 
तसव्वुर =ध्यान 
सरापा =साकार 
मुजस्सिम = साकार 
सुकूते -ग़म =ग़म के कारण चुप्पी        

" जो बजाय - खुद आह होती है ......."

जो   बजाय  -  खुद    आह   होती  है 
हाय   वो   क्या    निगाह    होती   है  

इक नज़र दिल की सम्त देख तो लो 
कैसे    दुनिया    तबाह     होती     है

यूँ   न   पर्दा   करो  खुदा   के    लिए 
देखो    दुनिया    तबाह    होती     है 

वो भी  है  यक़  मुक़ामे - इश्क़  जहां 
हर    तमन्ना     गुनाह    होती    है  

हासिले - हुस्नो - इश्क़  उसे समझो 
वो   जो   पहली   निगाह   होती   है 

एक   ऐसा   भी    वक़्त   होता    है 
मुस्कराहट    भी   आह    होती   है 


         साभार : जिगर मुरादाबादी 

Thursday, February 17, 2011

मिलाये खाक में गर वह ........

मिलाये ख़ाक में गर वह सितम शआर मुझे 
बला से समझे  मगर अपना खाकसार  मुझे
वह  गरचे  दुश्मने - सब्रो - क़रार   है लेकिन 
न देखूं जब  तलक  उसको नहीं क़रार  मुझे 
शुमार  हो न  सके जिनका  ताबरोज़ शुमार
दिए  फ़लक  ने   है  व  दाग़  बेशुमार   मुझे
वुफूरे - गिरिय  ने   मेरे  बचा  लिया  वरना 
जला चुकी थी मेरी  आहे - शोला -बार मुझे 
खुली  हुई   है   मेरी  जेरे - खाक  भी  आंखे 
किसी का आह यहाँ तक  है इन्तिज़ार मुझे 
मज़ा तो  यह है  कि  होते   हैं  मुझसे  ख़फा 
तो और आता है उन पर  ज़्यादा  प्यार मुझे 
ज़फ़र जहाँ में करूं  किसको राज़दार अपना 
कि इश्क़  से नहीं  अपना  भी एतिबार मुझे  

    साभार : ज़फ़र 
     
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सितम शआर =अत्याचारी 
ताबरोज़ शुमार = प्रलय के दिन तक 
वुफूरे - गिरिय =आंसुओं की अधिकता 
जेरे ख़ाक =कब्र में 


दिन कटा , जाइये अब ..........(ज़ौक )

दिन कटा , जाइए अब रात किधर  काटने को 
जब से वो घर में नहीं , दौड़े  है घर  काटने को 

हाए  सैयाद  तो  आया  मिरे   पर  काटने  को 
मैं तो ख़ुश था कि छुरी लाया है सर काटने को 

अपने आशिक़ को न खिलवाओ कनी हीरे की 
उसके आसूं ही किफ़ायत हैं जिगर काटने को 

वो शजर हु न गुलो  -  बार  न  साया   मुझमें 
बागबां ने  लगा  रक्खा  है  मगर  काटने  को 

शाम से  ही दिले - बेताब का  है ज़ौक ये हाल
है  अभी   रात   पड़ी   चार  पहर   काटने  को

     साभार : ज़ौक
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सैयाद = शिकारी 
किफ़ायत = काफ़ी
शजर = पेड़ 
गुलो - बार =फूल- फल 
  

Tuesday, February 15, 2011

" इकबाल "

तेरे   इश्क़  की   इंतेहा  चाहता   हू 
मेरी सादगी  देख  क्या  चाहता  हू |
सितम  हो कि वादा - ए - बेहिज़ाबी
कोई बात सब्र - आज़मा चाहता हू |
ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को 
कि मैं आपका सामना चाहता हू  |
कोई दम का मेहमां हू ए अहले-महफ़िल 
चिराग़ - सहर  हू  बुझना  चाहता  हू |
भरी बज़्म में राज़  की बात कह दी 
बड़ा बेअदब  हू सज़ा चाहता हू |


       साभार : इक़बाल

" ज़ौक " की गज़ल

जीना  नज़र अपना  हमें  उसला  नहीं आता
गर आज  भी  वो रश्के - मसीहा  नहीं आता 


मजकूर तिरी बज्म में किस का  नहीं आता
पर  ज़िक्र  हमारा  नहीं  आता ,  नहीं  आता 


आता है दम आंखो में दमे - हसरते - दीदार 
पर लब पे  कभी हर्फे - तमन्ना  नहीं  आता 


बेजा है दिल  ! उसके न  आने की शिकायत 
क्या कीजिएगा फर्माइये , अच्छा नहीं आता 


हम रोने पे आ  जाएं तो  दरिया  ही  बहा  दें 
शबनम की तरह से  हमें  रोना  नहीं  आता 


किस्मत ही से लाचार  हुं  ऐ  जौक  वर्गना
सब फ़नमें हुं मैं ताक मुझे क्या नहीं आता 


       साभार : ज़ौक 
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उसला = कदापि 
रश्के - मसीहा  =प्रेयसी 
मज़कूर = ज़िक्र 
ताक़ = दक्ष 

Sunday, February 13, 2011

ज़फ़र की शायरी

कीजे ना दस में बैठ के आपस की  बातचीत 
पहुचेगी दस हजार जगह दस  की  बातचीत 
कब तक रहें ख़ामोश कि ख़ातिर  से आपकी 
हमने बहुत सुनी कसो - नाकस की बातचीत 
मुद्दत के बाद हज़रते - नासेह ! करम  किया 
फ़रमाइए  मिज़ाजे -  मुक़द्दस  की  बातचीत
पर तर्के- इश्क़  के  लिए  इर्शाद  कुछ  न  हो
मैं क्या करूं नहीं यह मेरे  बस  की  बातचीत 
क्या याद आ गया है ज़फ़र पंजा - ए - निगार 
कुछ हो रही  है बंदो - मुखम्मस की बातचीत 


       साभार : ज़फ़र 
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कसो - नाकस =किस -किस की 
मिज़ाजे - मुक़द्दस = पवित्र मिज़ाज 
इरशाद = आज्ञा 
पंजा - ए - निगार  =महबूब के मेहंदी लगे हाथ 
बंदो - मुखम्मस  = पांच - पांच मिसरों के बंद वाली कविता 

Sunday, February 6, 2011

...........दर्दे -- मुश्तर्क .........

सुनते   हैं   सैलाब  में  डूबा  हुआ  था  इक   दरख्त
जिसकी चोटी पर डरे हुए बैठे थे दो आशुफ़्ता-बख्त


एक  उनमें   सांप  था  और   एक  सहमा  नौजवां 
दो ज़दो  का  एक  भीगी  शाख़  पर  था  आशियां 


सच  है  दर्दे - मुश्तर्क  में   है  वो  रूहे - इत्तिहाद 
इश्क़  में  जिसके बदल जाते  हैं  आईने - इनाद 


लेकिन ऐ गाफ़िल मुसलमानों ! मुदब्बिर हिन्दुओं 
हिंद के सैलाब में  इक  शाख़  पर  तुम  भी  तो  हो 


      साभार : जोश मलीहाबादी 


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दर्दे - मुश्तर्क = साझी पीड़ा 
आशुफ़्ता - बख्त = अभागे 
ज़दो का =आहतो   का
रूहे - इत्तिहाद = संगठन शक्ति 
आईने इनाद = शत्रुता के नियम 
मुदब्बिर = कूटनीतिज्ञ  

Friday, February 4, 2011

साहिर लुधियानवी ........... दीवाना कर दिया दिले - बेईख्तियार ने

देखा तो था यूं ही किसी ग़फ़लत -शआर ने 
दीवाना  कर  दिया  दिले -  बेईख्तियार  ने 


ये   आरज़ू  के   धुंधले  खराबो  !  जवाब  दो 
फिर किस की याद आई थी मुझको पुकारने 


तुझको खबर नहीं मगर इक सादालौह को 
बर्बाद  कर  दिया तेरे दो दिन  के प्यार  ने 


मै और तुम से तर्के- मोहब्बत का आरजू 
दीवाना कर  दिया  है  गमे -  रोज़गार  ने 


अब ऐ दिले - तबाह ! तेरा क्या ख़्याल है 
हम तो चले थे काकुले - गेती  संवारने  ||


           साभार : साहिर  लुधियानवी 
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ग़फ़लत - शआर =लापरवाही जिसका स्वभाव हो 
खराबो =खंडहरो 
सादालौह = सरल स्वभाव वाले 
काकुले -गेती = संसार रूपी केश 

Wednesday, February 2, 2011

......."दीने -आदमीयत "........

ये  मुसलमां  है , वो हिन्दू , ये  मसीही , वो यहूद 
इस पे  ये  पाबंदिया  हैं , और  उस  पर  ये  क़यूद


शैख़-ओ-पंडित ने भी क्या अहमक बनाया है हमें 
छोटे -  छोटे   तंग    खानों  में  बिठाया  है    हमें 


क़सूर-ए -इंसानी पे ज़ुल्मो -ज़हल बरसाती  हुई 
झंडिया  कितनी  नज़र  आती  हैं  लहराती  हुई 


कोई  इस  ज़ुल्मत  में  सूरत  ही  नहीं  नूर  की 
मुहर हर दिल पे लगी है इक-न-इक दस्तूर की 


घटते - घटते  मेहरे -आलमताब से तारा हुआ 
आदमी  है  मज़हबो -तहज़ीब  का  मारा  हुआ 


कुछ तमददुन के खलफ कुछ दीन के फ़रज़न्द हैं 
कुलजमो  के   रहने   वाले   बुलबुलों  में   बंद   हैं 


फिर   रहा  है  आदमी   भूला   हुआ  भटका   हुआ 
इक -न - इक लेबिल हर इक माथे पे है लटका हुआ 


अपने हमजिंसो के कीने से भला क्या फ़ायदा 
 टुकडे -टुकडे हो के जीने से भला क्या फ़ायदा 


                    साभार :जोश मलीहाबादी 
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क़यूद =बंधन 
ज़ुल्मत में =अंधकार  में 
मेहरे आलमताब से  = संसार को प्रकाशमान करने वाले सूर्य से 
तमददुन =संस्कृति 
खलफ =पुत्र 
कुलजमो  के = समुद्रों के 
हमजिंसो =साथी मनुष्यों 
कीने =द्वेष 

Tuesday, February 1, 2011

" हकीकते --हुस्न "

खुदा से हुस्न ने  इक रोज़ यह सवाल किया |
जहां में क्यों न मुझे  तूने    लाज़वाल किया ?


मिला जवाब कि तस्वीरखाना    है  दुनिया |
शबे- दराज अदम का  फ़साना  है  दुनिया  ||


हुई  है  रंगे - तग्य्युर से  जब  नमूद इसकी |
वही हसीं  है   हकीक़त जवाल  है  जिसकी ||


कहीं करीब  था ये  गुफ्तगू कमर  ने  सुनी |
फलक  पे आम हुई  अख्तरे -सहर ने सुनी ||


सहर ने तारे से सुन कर सुनाई शबनम को |
फलक की बात बता दी जमीं के महरम को ||


फिर आये  फूल के आंसू  पयामे  शबनम  से |
कली का नन्हा सा दिल खून हो गया गम से ||


चमन से  रोता  हुआ  मौसमे - बहार  गया |
शबाब  सैर  को  आया  था  सोगवार  गया  ||  


                                       साभार : इकबाल
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लाजवाल =अमर 
शबे- दराज =लम्बी रात 
अदम =मृत्यु 
रंगे -तग्य्युर =परिवर्तनशीलता  के रंग से 
जवाल  = मिटना
कमर =चांद 
अख्तरे-सहर =सुबह का तारा 
महरम = भेदी 
सोगवार = उदास