Monday, January 31, 2011

" किससे मुहब्बत है ?"

बताउं  क्या  तुझे  ,  ऐ हमनशी ,  किससे  मुहब्बत  है 
मैं जिस दुनिया में रहता हुं वो उस दुनिया की औरत है 
सरापा  रंगों   -  बू  है  पैकरे -  हुस्नो   -   लताफत   है 
             बहिश्ते - गोश होती  है  शुहर - अफ्शानिया  उसकी |


वो मेरे  आस्मां   पर  अख्तरे  -  सुबहे -  कयामत  है 
सुरेया-  बख्त है जोहरा  - जवी  है   माहे  -  तलत  है 
 मेरा   इमां  है  ,  मेरी  ज़िन्दगी  है  , मेरी जन्नत  है 
                मेरी आखों को  खीश  कर  गईं  बावानियां  उसकी |


वो   इक मिजराब है और छेड़ सकती है रागे - जाँ को
वो चिंगारी है लेकिन  फूंक  सकती है   गुलिस्तां   को 
वो बिजली  है जला सकती है सारी  बज्में  इम्कां  को
                  अभी मेरे ही  दिल तक  है शरर - सामानिया  उसकी |


    साभार  : मजाज़ 


 पैकरे-हुस्नो-लताफत = सौंदर्य  और सुकुमारता की प्रतिमा 
शुहर-अफ्शानिया =बातें करना 
सुरेया-बख्त ,माहे तलत = चांद- तारे जैसा चेहरा 
खीश  =चकाचौंध  
वावानिया =आभा 
शरर-सामानिया =अंगारे बरसाना 

Thursday, January 27, 2011

आगाज़ तो होता है ............

आगाज़   तो   होता   है   अंजाम   नहीं   होता 
जब  मेरी  कहानी  में   वह  नाम   नहीं   होता 


जब जुल्फ  की कालिख में गुम जाए कोई राही 
बदनाम    सही  लेकिन   गुमनाम   नहीं  होता 


हंस -हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुने टुकडे
हर  शख्स  की  किस्मत  में  इनाम  नहीं   होता 


बहते   हुए  आंसू   ने  आखों  से  कहा  थम  कर 
जो मय  से  पिघल  जाए  वह  जाम  नहीं  होता 


दिन   डूबे    हैं    या   डूबी   बरात   लिए  कश्ती 
साहिल   पे   मगर  कोई   कोहराम  नहीं   होता 


          साभार : मीना कुमारी 

Tuesday, January 25, 2011

25 january 2011

जागा जागा लगता  है  अब  सोये  भारत  का  इन्सान 
ऐसा  मेरा  मन कहता  है  बदला  रहा   है  हिन्दुस्तान

कोयलिया  के  स्वर बदले  है  यौवन बदला आमों  का
बदला बदला लगता है  कुछ नक्शा मुझको ग्रामों  का 
दिल दिमाग को दास बनाने वाला  बंधन  बदल   गया 
झंडा क्या बदला दिल्ली का  एक एक कण बदल गया 


मंजिल बदल गई भारत  की बदल  गए  सारे  सोपान 
ऐसा  मेरा  मन  कहता  है  बदल  रहा  है  हिन्दुस्तान !


पक्की बन  गई  हैं  दीवारें  हर  कच्ची  झोपड़ियो  की 
कलम पकड़ना सीख गई है ज़र्द उंगलिया बुढ़िया की 
कला के गूंगे आज बोल  कर मांग  रहे अधिकारों को 
श्रम  साहस  ने  चीर  दिया  है  तानाशाह  पहाडो  को 


आज स्वर्ग के लिए चुनौती लगते  है कल  के वीरान 
ऐसा मेरा मन  कहता  है  बदल  रहा  है  हिन्दुस्तान  !


           साभार : बालकवि  बैरागी 

Saturday, January 22, 2011

" इन्तजार "

चांद मद्धम है   आस्मां   चुप   है ,
नींद की गोद   में जहां   चुप   है ।



दूर   वादी     में     दूधिया    बादल
झुक के पर्वत को प्यार करते हैं,
दिल में नाकाम हसरतें ले   कर 
हम   तेरा   इन्तजार   करते   हैं ।



इन   बहारों के  साये   में    आ   जा 
फिर   मोहब्बत    जवां   रहे   न   रहे 
ज़िन्दगी      तेरे      नामुरादों      पर 
कल    तलक़    मेहरबां   रहे   न   रहे  ।



रोज़   की    तरह     आज    भी     तारे 
सुबह    की    गर्द    में    न   खो जाएं
आ   तेरे     ग़म    में   जागती    आंखें
कम से कम एक रात तो सो जाएं।



चांद   मद्धम   है   आस्मां   चुप    है ,
नींद   की   गोद   में   जहां चुप   है ।



         साभार  : साहिर लुधियानवी   

Thursday, January 20, 2011

ख़ुशी

दूर कहीं से आवाज़ आई--आवाज़ जैसे तेरी हो
कानों ने गहरी सांस ली ,जीवन -बाला काँप उठी

मासूम खुशी हाथ छुड़ा कर दोनों नन्हीं बाँहें फैला कर 
एक बालिका की तरह नंगे पाँव भाग उठी

पहला काँटा संस्कार का ,दूसरा काँटा लोक लाज का
तीसरा काँटा धन दौलत का ,ख़तरे जैसे कितने काँटे......

तलवों से काँटे निकालती पोर दबाती लहू पोंछती
मीलों-कोसों लँगड़ाती हुई मासूम खुशी वहाँ आ पहुँची

अगला पाँव आगे को बढ़े ,पिछला पाँव पीछे को मुड़े
आवाज़ जैसे बिल्कुल तेरी ,नज़र जैसे बिल्कुल बेगानी

असमंजस का तीखा काँटा एड़ी में इस तरह चुभ गया
अक़्ल इल्म के नाखून हार गये ,जाने काँटा कहाँ तक उतर गया

सारा पाँव सूज गया है ,ज़हर-सा फैल रहा है
हैरान-परेशान ज़मीन पर बैठी मासूम ख़ुशी रो उठी है........


साभार  : अमृता प्रीतम



Monday, January 17, 2011

"शिक़स्त"

अपने सीने से लगाए हुए उम्मीद की लाश
मुद्दतों जीस्त   को नाशाद   किया   है   मैने ।
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो-चार,
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैंने ।
जब भी राहों में नज़र आए हरीरी मलबूस,
सर्द आहों में तुझे   याद   किया   है   मैने ।।


और अब जबकि मेरी रूह की पहनाई में,
एक सुनसान -सी मग़्मूम घटा छाई है ।
तू दमकते हुए आरिज़ की शुआएं लेकर ,
गुलशुदा शम्मए जलाने को चलीं आई है॥


मेरी महबूब , ये हंगामा- ए -  तजदीदे -  वफ़ा
मेरी अफ़सुर्दा   जवानी के   लिए   रास   नहीं  ।
मैने जो फ़ूल चुने   थे तेरे   क़दमों   के   लिए,
उनका धुंधला-सा-तसव्वुर भी मेरे पास नहीं॥


एक यख़बस्ता उदासी है दिलो-जां पे मुहीत,
अब मेरी रूह में बाकी है न उम्मीद न जोश।
रह गया दब के गिरांबार सलासिल के तले ,
मेरी दरमांदा जवानी की उमंगो का खरोश ॥


रेगज़ारों में बगूलों के सिवा   कुछ भी   नहीं;
साया -ए -अब्रे - गुरेज़ां से मुझे क्या लेना ?
बुझ चुके हैं मेरे सीने में मुहब्बत के कंवल,
अब तेरे हुस्ने - पशेमां से मुझे क्या लेना ॥


तेरे आरिज़   पे   ये   ढ़लके   हुए सीमीं आंसू ,
मेरी अफ़सुर्दगी-ए ग़म का मुदावा तो नहीं।
तेरी महजूब   निगाहों का पयामे - तजदीद,
इक तलाफ़ी ही सही,मेरी तमन्ना तो नहीं॥


         साभार :  साहिर लुधियानवी

Sunday, January 16, 2011

’ ग़ज़ल ’

     आग़ाज़ तो   होता   है   अंज़ाम     नहीं    होता
     जब मेरी कहानी   में    वह नाम नहीं   होता

     जब ज़ुल्फ़ की कालिख में गुम जाए कोई राही
        बदनाम सही ,लेकिन कोई   गुमनाम नही होता

     हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुने टुकड़े
                          हर शख़्स   की    किस्मत   में   ईनाम   नहीं   होता

      बहते हुए आंसू   ने आंखों   से   कहा   थम   कर
      जो मय   से   पिघल जाए वह जाम नहीं होता

      दिन    डूबे     हैं    या डूबी बारात   लिए कश्ती
      साहिल पे   मगर कोई   कोहराम    नहीं होता

                 साभार :  मीना कुमारी

Saturday, January 15, 2011

"मधुशाला "

छोटे से जीवन में कितना
प्यार करूँ ,पी लूँ  हाला
आने के ही साथ जगत में
कहलाया    जाने   वाला ,
             स्वागत के ही साथ विदा की
             होती      देखी       तैयारी
बंद लगी होने खुलते ही
मेरी जीवन मधुशाला !


लाल सुरा की धार लपट सी
कह न   इसे देना ज्वाला
फ़ेनिल मदिरा है ,मत इसको
कह देना उर का   छाला
            दर्द नशा है इस मदिरा का
            विगत स्मृतियाँ साकी हैं
पीड़ा में आनंद जिसे है
आए मेरी मधुशाला !


धर्म ग्रन्थ सब जला चुकी है
जिसके अंतर की ज्वाला
मन्दिर, मस्जिद -गिरजे सबको
तोड़ चुका जो मतवाला,
            पंडित मोमिन पादरियों के
           फ़ंदों को जो काट चुका
कर सकती आज उसी का
स्वागत मेरी मधुशाला !


एक बरस में एक बार ही
जगती होली की ज्वाला
एक बार ही लगती बाजी
जलती दीपों की माला
          दुनियावालों किन्तु किसी दिन
          आ मदिरालय में देखो
दिन को होली रात दीवाली
रोज मनाती मधुशाला !


मुझे पिलाने को लाये हो
इतनी थोड़ी --सी हाला,
मुझे दिखाने को लाए हो
यही एक छिछला प्याला
          इतनी सी पीने से अच्छा
          सागर की ले प्यास मरूँ
सिंधु तृषा दी किसने रचकर
बिन्दु बराबर मधुशाला !


क्षीण ,क्षुद्र , क्षणभंगुर , दुर्बल
मानव मिट्टी का प्याला
भरी हुई है जिसके अंदर
कटु मधु जीवन की हाला
            मृत्यु बनी है निर्दय साकी
            अपने शत - शत कर फैला
काल प्रबल है पीनेवाला
संसृति है यह मधुशाला !


उस प्याले से प्यार मुझे जो
दूर हथेली से प्याला ,
उस हाला से चाव मुझे जो
दूर अधर से है हाला ,
          प्यार नहीं पा जाने में है
          पाने के अरमानों में
पा जाता तब ,हाय न इतनी
प्यारी लगती मधुशाला !


नहीं चाहता आगे बढ़ कर
छीनूँ औरो की हाला ,
नहीं चाहता धक्के दे कर
छीनूँ औरो का प्याला ,
          साकी मेरी ओर न देख
          मुझको तनिक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से
देख रहा हूँ मधुशाला !


पितृ -पक्ष में , पुत्र उठाना
अर्ध्य न कर में,पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना गंगा-
सागर में भर कर हाला ,
            किसी जगह की मिट्टी भीगे
            तृप्ति मुझे मिल जाएगी ,
तर्पण ,अर्पण करना मुझको
पढ़ -पढ़ के मधुशाला !

सादर : बच्चन जी

Tuesday, January 11, 2011

" दावत "

रात - कुड़ी ने दावत दी
सितारों के चावल फटक कर यह देग किसने चढ़ा दी

चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पी कर आकाश की आँखें गहरा गईं

धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर फ़ूल मेहमान हुए हैं

आगे क्या लिखा है
अब इन तक़दीरों से कौन पूछने जाए

उम्र के कागज़ पर -
तेरे इश्क़ ने अगूँठा लगाया , हिसाब कौन चुकाएगा !

क़िस्मत ने इक नग़मा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात वही नग़मा गाएगा

कल्प - वृक्ष की छाँव में बैठ कर
कामधेनु के छलके दूध से किस ने आज तक दोहनी भरी !

हवा की आहें कौन सुने ,
चलूँ ,आज मुझे तक़दीर बुलाने आई है

साभार :  अमृता प्रीतम

Sunday, January 9, 2011

" फ़नकार"

मैंने जो   गीत    तेरे   प्यार   की    खातिर  लिखे ,
आज उन गीतों   को बाज़ार   में   ले   आया हूँ !



आज     दुकान      पे     नीलाम      उठेगा     उनका ,
तूने जिन गीतों पे रक्खी थी मोहब्बत की असास ।
आज   चाँदी   के    तराजू   में     तुलेगी   हर   चीज़,
मेरे    अफ़कार ,   मेरी   शायरी ,  मेरा   एहसास ।


जो तेरी जात   से   मनसूब   थे , उन   गीतों को , 
मुफ़लिसी ,   जिन्स   बनाने   पे   उतर  आई है ।
भीख , तेरे रुखे -  रंगीं   के   फ़सानों   के   एवज़ , 
चन्द आशिया   - ए - ज़रूरत   की   तमन्नाई   है ।


देख इस   कार  -  गहे  -  मेहनतो  -  सर्माया में , 
मेरे नग़्मे   भी    मेरे   पास  नहीं   रह   सकते ।
तेरे जल्वे   किसी   ज़रदार  की  मीरास   सही ,
तेरे   ख़ाके   भी   मेरे   पास   नहीं   रह   सकते ।


आज इन गीतों को बाज़ार  में   ले  आया   हूँ ।
मैंने जो गीत तेरे प्यार   की   ख़ातिर   लिखे ॥


    साभार - साहिर लुधियानवी

Saturday, January 8, 2011

निशा _ निमंत्रण

              मधुप , नहीं अब मधुबन तेरा !

             तेरे साथ खिलीं जो कलियाँ ,
             रूप - रंगमय   कुसुमावलियाँ ,
वे कब की धरती में सोई होगी उनका फ़िर न सबेरा !
             मधुप ,नहीं अब मधुबन तेरा !

             नूतन मुकुलित कलिकाओं पर,
             उपवन की नव आशाओं पर
नहीं सोहता , पागल , तेरा दुर्बल - दीन - अमंगल फ़ेरा !
             मधुप नहीं अब मधुबन तेरा !

              जहाँ प्यार बरसा था तुझ पर ,
              वहाँ  दया की   भिक्षा  ले कर
जीने की लज्जा को कैसे सहता , है मानी ,मन तेरा !
             मधुप ,  नहीं अब मधुबन तेरा !

  साभार - हरिवंश राय बच्चन

Thursday, January 6, 2011

अश्वमेध यज्ञ

एक चैत की पूनम थी
कि दूधिया श्वेत मेरे इश्क का घोड़ा
देश और विदेश में विचरने चला
सारा शरीर सच -सा श्वेत
और श्यामकर्ण विरही रंग के ।
एक स्वर्णपत्र उस के मस्तक पर
’यह दिग्विजय का घोड़ा---
कोई सबल है तो इसे पकड़े और जीते’
और जैसे इस यज्ञ का एक नियम है
वह जहाँ भी ठहरा मैं ने गीत दान किये
और कई जगह हवन रचा
सो जो भी जीतने को आया वह हारा ।
आज उमर की अवधि चुक गई है
यह सही - सलामत मेरे पास लौटा है,
पर कैसी अनहोनी----
कि पुण्य की इच्छा नहीं,न फ़ल की लालसा बाकी
यह दूधिया श्वेत मेरे इश्क का  घोड़ा
मारा नही जाता--- मारा नही जाता
बस यही सलामत रहे,पूरा रहे!
मेरा अश्वमेघ यज्ञ अधूरा है,अधूरा रहे !

साभारः--अमॄता प्रीतम

बातें

आ साजन,आज बातें कर लें......

तेरे दिल के बागों में हरी चाह की पत्ती-जैसी
जो बात जब भी उगी,तूने वही बात तोड़ ली

हर इक नाजुक बात छुपा ली,हर इक पत्ती सूखने डाल दी

मिट्टी के इस चूल्हे में से हम कोई चिन्गारी ढूंढ लेंगे
 एक -दो फ़ूंक मार लेंगे बुझती लकड़ी फ़िर से बाल लेंगे

मिट्टी के इस चूल्हे में इश्क की आंच बोल उठेगी
 मेरे जिस्म की हंड़िया में दिल का पानी खौल उठेगा

आ साजन आज खोल पोटली.....
.
हरी चाय की पत्ती की तरह
वही तोड़-गवाई बांते वही सम्भाल सुखाई बांते
 इस पानी में डाल कर देख इसका रंग बदल कर देख

गर्म घूंट इक तुम भी पीना,गर्म घूंट इक मै भी पी लूं
 उम्र का ग्रीश्म हमने बिता दिया,उम्र का शिशिर नहीं बीतता

आ साजन,आज बांते कर लें.......

साभार ः  अमॄता प्रीतम