Saturday, October 22, 2011

ये राहे - कू - ए - यार है राहे अदम नहीं ........

वो दिन है कौन सा कि सितम पर सितम नहीं 
गर ये  सितम  है  रोज़ तो  इक  रोज़ हम नहीं 

ये   दिल  मुझे   डुबो  के  रहेगा , कि  सीने  में 
वो  कौन  सा   है  दाग़  जो  गिर्दाबे - ग़म नहीं 

अहले - सफ़ा का देखा न  दामन किसी ने तर 
गौहर है  अपनी  आब  में  ग़र्क और नम नहीं 

गर आबे - दीद  शर्बते - कौसर भी है तो क्या 
जब तक कि उसमें चाशनी- ए- दर्दो -ग़म नहीं 

जाता  है  आँखें  बंद  किए   ज़ौक  तू   कहां
ये  राहे - कू - ए - यार  है  राहे  अदम  नहीं 
                                                        -ज़ौक 

Friday, October 21, 2011

दो घड़ी के बाद ......


क्या आए तुम जो आए घड़ी दो घड़ी के बाद
सीने में सांस होगी अड़ी दो घड़ी के बाद 

कोइ  घड़ी  अगर वो मुलाइम हुए तो क्या 
कह बैठेंगे फिर एक कड़ी दो घड़ी के बाद 

क्या रोका अपने गिरिये को हमने कि लग गई
फिर वो ही आंसुओं की झड़ी दो घड़ी के बाद 

कल हमने उससे तर्के - मुलाक़ात की तो क्या 
फिर उस  बगैर कल न पड़ी दो घड़ी के बाद 

गर दो घड़ी तक उसने न देखा इधर तो क्या 
आख़िर हमीं से आँख लड़ी दो घड़ी के बाद 

क्या जाने दो घड़ी वो रहे "ज़ौक" किस तरह 
फिर तो न ठहरे पाँव घड़ी दो घड़ी के बाद 
                                                 -ज़ौक

Saturday, October 8, 2011

हे वीणा वादिनी वर दे !


                 हे वीणा वादिनी वर दे !
मेरी एक कोरी कॉपी को तू कविताओं से भर दे ! 

अगर कहीं पर सम्मेलन में मेरे सुर छिड़ जायें ,
जनता की क्या बात ,लीडर भी भागे-भागे आयें ,
संयोजक झट झोली में ,नोटों की गड्डी भर दे !
                हे वीणा वादिनी वर दे !

मेरे गीतों को सुन कर , 'नीरज' भी  पानी भर जाये ,
'पुष्प'-वुष्प की गिनती क्या ,बेढ़ब सा ज्ञानी डर जाये ,
जो गुण है 'काका हाथरसी में' ,वह सब मुझमें जड़ दे !
                 हे वीणा वादिनी वर दे !

वीर रस की कविता सुनाकर ,पब्लिक में 'हुल्लड़' मचवाये ,
ऐसे  जूते  चलें  वहाँ   पर ,  संयोजक  भी  पिट  जाये ,
ऐटम  बम  जैसे  परमाणु  , मेरी  वीणा  में  धर   दे ! 
                 हे वीणा वादिनी वर दे !
                                             -हुल्लण मुरादाबादी 

Friday, October 7, 2011

दुनिया में बड़ी चीज़ मेरी जान ! हैं आँखें

हर तरह के जज्बात का ऐलान है आँख 
शबनम कभी ,शोला कभी तूफ़ान है आँखें 

आँखों  से  बड़ी  कोई  तराजू  नहीं  होती 
तुलता है बशर जिसमें वो मीज़ान हैं आँखें 

आँखें ही मिलाती  हैं  जमाने में दिलों को 
अनजान हैं हम तुम अगर अनजान हैं आँखें 

लब कुछ भी कहें इससे हक़ीक़त नहीं खुलती 
इंसान   के  सच  झूठ  की  पहचान  हैं   आँखें 

आँखें  न  झुकें  तेरी  किसी  गैर  के  आगे 
दुनिया  में  बड़ी  चीज़  मेरी जान  !  हैं  आँखें 

                         -साहिर लुधियानवी

Thursday, August 18, 2011

दिये से मिटेगा न मन का अन्धेरा ............

दिये से मिटेगा न मन का अन्धेरा 
धरा को उठाओ गगन को झुकाओ !!

बहुत बार आई-गई यह दिवाली 
मगर तम जहाँ था वहीं पर खड़ा है ,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक 
कफ़न रात का हर चमन पर पड़ा है ,
न फिर सूर्य रूठे ,न फिर स्वप्न टूटे 
ऊषा को जगाओ ,निशा को सुलाओ !
दिये से मिटेगा न मन का अन्धेरा 
धरा को उठाओ गगन को झुकाओ !!

सृजन-शान्ति के वास्ते है जरूरी 
कि हर द्वार पर रौशनी गीत गाये 
तभी मुक्ति का यज्ञ  यह पूर्ण होगा ,
कि जब प्यार तलवार से जीत जाए ,
घृणा बढ़ रही है ,अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ ,दनुज को मिटाओ ! 
दिये से मिटेगा न मन का अन्धेरा 
धरा को उठाओ गगन को झुकाओ !!

बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के 
न वह बंद रहती किसी के भवन में ,
किया कैद जिसने उसे शक्ति-छल से 
स्वयं उड़ गया वह धुआँ बन पवन में ,
न मेरा-तुम्हारा ,सभी का प्रहर यह 
इसे भी बुलाओ उसे भी बुलाओ !
दिये से न मिटेगा न मन का अन्धेरा 
धरा को उठाओ ,गगन को झुकाओ !!
                                              - नीरज

Sunday, August 14, 2011

मर के भी कब तक निगाहे - शौक़ को रुसवा करें ...........

मर के  भी  कब  तक  निगाहें -शौक़  को  रुसवा करें 
ज़िन्दगी तुझ को  कहाँ  फैंक आयें ,आखिर क्या करें

ज़ख्मे-दिल  मुमकिन  नहीं तो चश्मे-दिल ही वा करें१ 
वो    हमें    देखें   न    देखें   हम   उन्हें    देखा   करें 

ऐ  मैं  कुर्बां  मिल  गया  अर्जे-मोहब्बत   का  सिला 
हाँ  उसी  अंदाज़  से  कह  दो ,तो फिर हम क्या करें

देखिये   क्या   शोर   उठता   है   हरीमे - नाज़   से२ 
सामने  आईना  रख  कर  ख़ुद  को इक सिज्दा करें

हाए  ये   मजबूरियां   , महरूमियां   ,  नाकामियां
इश्क़ आखिर इश्क़ है ,तुम क्या करो ,हम क्या करें

                                            - जिगर मुरादाबादी 
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१:मन के नेत्र ही खोलें
२:प्रेयसी के घर की चारदीवारी से

Thursday, August 4, 2011

अल्लाह अगर तौफ़ीक न दे .........

अल्लाह  अगर  तौफ़ीक   न  दे  इंसान   के   बस   का   काम  नहीं 
फ़ैज़ाने - मोहब्बत१   आम  सही , इर्फ़ाने - मोहब्बत२   आम  नहीं 

ये  तूने   कहा  क्या  ऐ   नादां  , फ़ैयाज़ी -  ऐ - क़ुदरत३  आम  नहीं 
तू  फिक्रो - नज़र४  तो  पैदा   कर , क्या  चीज़  है  जो  इनाम  नहीं 

यारब ये मुक़ाम-ऐ-इश्क़ है क्या ?गो दीदा-ओ-दिल५  नाकाम नहीं 
तस्कीन   है   और  तस्कीन   नहीं ,  आराम  है  और  आराम  नहीं 

आना  है  जो  बज्मे - जानां६  में , पिन्दारे - ख़ुदी  को७  तोड़ के आ 
ऐ  होशो - ख़िरद  के८  दीवाने , यां  होशो - ख़िरद  का   काम   नहीं 

इश्क़  और  गवारा  ख़ुद  कर   ले  बेशर्त  शिकस्ते - फाश९  अपनी 
दिल  की  भी  कुछ  उनके साज़िश है ,तन्हा ये नज़र का काम नहीं 


सब  जिसको  असीरी१०   कहते  हैं , वो  तो  है  असीरी  ही  लेकिन 
वो  कौन  सी  आज़ादी  है  जहां , जो  आप  ख़ुद अपना दाम११  नहीं 

                                                                     -जिगर मुरादाबादी 
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१ :प्रेम की उदारता 
२ :प्रेम की पहचान 
३ :प्रकृति की उदारता 
४ :चिन्तन और परख 
५ :दृष्टि और दिल 
६ :प्रेयसी की महफ़िल 
७ :अहंकार 
८ :बुद्धि के 
९ :पराजय 
१० :क़ैद 
११ :जाल  

इबादत ........ .

इबादत  करते  हैं जो  लोग जन्नत  की तमन्ना में 
इबादत तो  नहीं  है  इक  तरह  की  वो तिजारत है 

जो डर कर  नारे -  दोज़ख़ से खुदा  का नाम लेते हैं 
इबादत क्या वो ख़ाली बुजदिलाना एक ख़िदमत है 

मगर जब शुक्रे-नेमत में जबीं झुकती  है बन्दे की 
वो  सच्ची  बन्दगी  है , इक  शरीफ़ाना  इताअत है 

कुचल  दे  हसरतों  को  बेनियाज़े  - मुद्दुआ  हो  जा 
ख़ुदी को६ झाड़  दे  दामन से मरदे - बाखुदा हो  जा 

उठा  लेती  हैं  लहरें  तहनशीं  होता  है जब   कोई
उभरना है  तो  ग़र्के - मौजे -  बहरे -  फ़ना  हो  जा९  

                                                    -जोश मलीहाबादी  
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१ :नरक की आग से
२ :धन्यवाद स्वरूप 
३ :माथा 
४:आराधना 
५ :फल प्राप्ति के प्रति विमुख 
६ :अहं को 
७ :ख़ुदा का बन्दा 
८ :डूब जाता है 
९ :अनस्तित्व रूपी सागर की लहरों में डूब जा  
इबादत 
  

Saturday, April 23, 2011

हुए क्यों उस पे आशिक़ ........

हुए  क्यों  उस  पे आशिक़ हम अभी से 
लगाया जी  को  नाहक  ग़म  अभी  से 

दिला रब्त१ उससे रखना कम अभी से 
जता  देते   हैं  तुझ  को  हम   अभी  से 

तिरे बीमारे-ग़म के हैं जो ग़म - ख्वार२
बरसता   उन  पे  है  मातम   अभी  से 

तुम्हारा  मुझ  को  पासे - आबरू३  था
वगर्ना   अश्क़    थम  जाते  अभी   से 

मरा  जाना  मुझे   ग़ैरों   ने   ऐ   ज़ौक़ 
कि  फ़िरते  हैं  खुशो-खुर्रम४  अभी  से 
          साभार :ज़ौक़ 
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१-सम्बन्ध 
२सहाभूतिकर्ता 
३इज़्ज़त का ख्याल 
४-अत्यन्त प्रसन्न  

Friday, April 8, 2011

तुम दीवाली बन कर जग का .......

तुम दीवाली बन कर  जग का तम दूर करो ,
मैं  होली  बन कर बिछड़े  ह्रदय मिलाऊंगा !

सूनी  है  मांग  निशा  की   चन्दा  उगा  नहीं 
हर   द्वार   पड़ा   खामोश  सवेरा  रूठ   गया ,
है गगन विकल,आ गया सितारों का पतझर 
तम  ऐसा  है  कि  उजाले  का  दिल टूट गया ,
तुम जाओ घर-घर दीपक बन कर मुस्काओ 
मैं भाल - भाल  पर  कुंकुम बन लग जाऊंगा !

तुम दीवाली बन कर जग का  तम  दूर करो ,
मै  होली  बन  कर  बिछड़े ह्रदय मिलाऊंगा !!

कर रहा नृत्य विध्वंस ,सृजन के थके चरण ,
संस्कृति  की  इति  हो  रही , क्रुद्ध  हैं  दुर्वासा
बिक   रही  द्रौपदी  नग्न  खड़ी  चौराहे   पर 
पढ़  रहा  किन्तु  साहित्य सितारों की भाषा ,
तुम  गा  कर  दीपक  राग  जगा  दो मुर्दों को 
मैं  जीवित  को  जीने  का   अर्थ   बताऊंगा !

तुम दीवाली बन  कर जग का  तम दूर करो 
मैं होली बन कर बिछड़े ह्रदय  मिलाऊंगा  !!

इस  कदर  बढ़  रही  है   बेबसी  बहारों   की 
फूलों  को  मुस्काना  तक  मना  हो  गया  है ,
इस  तरह  हो  रही  पशुता  की   पशु - क्रीड़ा
लगता  है   दुनिया  से  इंसान  खो  गया   है ,
तुम    जाओ   भटकों   को   रास्ता   बताओ 
मैं   इतिहासों   को  नए  सफे   दे   जाऊंगा !

तुम दीवाली बन कर जग का तम दूर करो 
मैं होली बन कर बिछड़े ह्रदय मिलाऊंगा !!
                                               साभार : नीरज 

Saturday, April 2, 2011

शिकवे के नाम से ,बेमेहर खफ़ा होता है ........

शिकवे  के   नाम   से ,  बेमेहर  ख़फ़ा   होता   है 
यह भी मत कह,कि जो कहिये,तो गिला होता है 
पुर   हूं  मैं  शिकवे  से  यों , राग  से  जैसे  बाजा 
इक  ज़रा  छेडिये , फिर  देखिये , क्या  होता  है 
गो   समझता  नहीं , पर   हुस्ने - तलाफ़ी  देखो 
शिकव - ए - जौर  से , सरगर्मे - जफ़ा  होता  है 
इश्क़ की राह में , है चर्खे - मकौकब की वो चाल 
सुस्त   रौ   जैसे   कोई   आबला   पा   होता   है 
क्यों  न  ठहरे  हदफे - नावके - बेदाद , कि  हम 
आप   उठा  लाते   हैं , गर  तीर  खता  होता   है 
खूब था , पहले से होते जो हम अपने  बदख्वाह
कि   भला   चाहते    हैं    और   बुरा   होता    है 
                                            साभार :ग़ालिब 
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बेमेहर =निर्मोही 
हुस्ने-तलाफ़ी =सुन्दर विधि से क्षतिपूर्ती 
शिकव-ए-जौर =अत्याचार की शिकायत 
सरगर्मे -जफ़ा =अत्याचार में व्यस्त 
चर्खे -मकौकब =तारों भरा गगन 
हदफे-नावके-बेदाद =ज़ुल्म के तीर का निशाना  

Tuesday, March 29, 2011

कुन्ज में बैठा रहूं .......

कुंज   में    बैठा   रहूं   यूं   पर   ख़ुला 
काश ,कि  होता क़फ़स  का दर ख़ुला 
हम  पुकारें  और  खुले ,यूं कौन जाय
यार  का  दरवाजा   पायें   गर   ख़ुला
हमको  है  इस  राज़दारी  पर घमण्ड 
दोस्त का  है राज़ ,दुश्मन  पर  ख़ुला 
वाकई दिल पर,भला लगता था दाग़
ज़ख्म ,लेकिन दाग़ से  बेहतर  ख़ुला 
हाथ से रख दी  कब  अबरू  ने  कमां
कब  कमर से गमज़े की ख़ंजर ख़ुला 
मुफ़्त  का  किसको  बुरा  है  बदरक़ा
रहरवी  में   परद - ए - रहबर    ख़ुला 
सोज़े-दिल का,क्या करे बाराने-अश्क 
आग भड़की,मुंह अगर दम भर ख़ुला 
नामे के साथ आ  गया  पैगामे - मर्ग
रह  गया  ख़त  मेरी  छाती पर ,ख़ुला 
देखियो ,ग़ालिब से गर  उलझा  कोई
है  वली  पोशीदा ,और  काफ़िर  ख़ुला 
              साभार :ग़ालिब 
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गमज़े=हाव-भाव 
बदरक़ा=मार्ग-दर्शक
परद-ए-रहबर =अगुवा का भेद 
बाराने -अश्क=अश्रु-वृष्टि 
पैगामे-मर्ग =मृत्यु-सन्देश 

Monday, March 28, 2011

मोहब्बत की मोहब्बत तक ही जो दुनिया समझते हैं..

मोहब्बत की मोहब्बत तक  ही जो दुनिया समझते हैं 
खुदा  जाने  वो   क्या समझे  हुए  हैं  क्या  समझते हैं 

जमाले - रंगों - बू  तक  हुस्न  की  दुनिया  समझते हैं 
जो सिर्फ इतना समझते हैं वो आखिर क्या समझते हैं 

कमाले - तश्नगी  ही  से  बुझा  लेते  हैं   प्यास   अपनी
इसी  तपते  हुए  सहरा   को   हम  दरिया  समझते  हैं

हम,उनका इश्क कैसा , उनके गम के भी नहीं काबिल 
ये   उनकी   मेहरबानी   है  कि  वो  ऐसा   समझते   हैं 

मोहब्बत  में  नहीं   सैरे - मनाजिर   की  हमें   परवाह 
हम  अपने हर  नफ़स को इक नयी दुनिया समझते हैं 

ख़बर   इसकी  नहीं  उन  खामकाराने - मोहब्बत  को 
उसी  को  दुःख  भी  देते  हैं  जिसे  अपना  समझते हैं 

                         साभार :जिगर मुरादाबादी 
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सैरे-मनाजिर =दृश्य देखने की 
नफ़स = श्वास 
खामकाराने-मोहब्बत =प्रेम में अपरिपक्व व्यक्ति 
  

Wednesday, March 23, 2011

दो बांस , तीन डंडों से बनी .......

दो  बांस , तीन  डंडों   से  बनी  नसेनी यह 
जो खडी सेहन का जोड़ रही छत से  नाता ,
धरती-आकाश  बने  जब से तब से इसपर
हर  एक यहाँ चढ़-उतर , उतर-चढ़  जाता !

आंधियां   घिरीं   तूफ़ान   चले , टूटे   पहाड़  
बदला जग ,बदली सदियाँ ,बदले सिंहासन,
पर अब तक बदल नहीं पाया है क्षण भर को 
इस  नयी पुरानी पीढी  का संसृति - शासन !

कोई   आँगन  में , कोई  पहली   सीढी  पर 
कोइ  हो   खडा  दूसरी    पर   पछताता   है 
पग धरने को  है  कोई  विकल  तीसरी  पर 
कोई छत पर जा कर निज सेज बिछाता है 

अचरज  होता  है  कैसे  बस  दो बांसों पर 
है  सधी सृष्टि इतनी विशाल ,इतनी भारी !
कैसे केवल  घुन  लगे  तीन  इन  डंडों  पर 
चढ़-उतर रही है युग-युग से दुनिया सारी !

है  यह  भी  एक  प्रश्न  मैं  पूछ  रहा  खुद से 
क्या  सबका  छत  पर जाना यहाँ ज़रूरी है ?
आना है क्या अनिवार्य सभी का आँगन में ?
क्या  एक  नसेनी  सिर्फ़  ज़िन्दगी  पूरी  है ?


उत्तर  देता  आकाश  कि  चढ़ना  ही जीवन 
औ ' मृत्यु   उतरने  का   ही एक  बहाना  है 
है जन्म-मरण बस तीन सीढियों  की  दूरी 
सबको  ऊपर   जाना  है  ,  नीचे  आना   है !


             साभार :नीरज   

Thursday, March 17, 2011

आंखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था .......

आंखों  का  था  क़ुसूर  न  दिल  का  क़ुसूर था 
आया   जो    मेरे    सामने    मेरा   ग़ुरूर   था 

वो   थे  न   मुझसे   दूर  न  मैं  उनसे  दूर  था
आता  न  था  नज़र  तो  नज़र  का  क़ुसूर  था

कोई    तो     दर्दमंदे  -   दिले  -  नासुबूर    था 
माना कि तुम न  थे , कोई  तुम - सा ज़रूर था 

लगते    ही    ठेस   टूट   गया   साज़े  -  आरज़ू
मिलते ही  आंख शीशा - ए - दिल चूर - चूर था 

ऐसा    कहां    बहार   में   रंगीनियों  का   जोश 
शामिल  किसी  का  खूने - तमन्ना  ज़रूर  था 

साक़ी की चश्मे -मस्त का क्या कीजिये बयान 
इतना   सरूर   था   कि   मुझे   भी   सरूर   था 

जिस दिल को तुमने लुत्फ़ से अपना बना लिया 
उस दिल  में  इक  छुपा  हुआ  नश्तर  ज़रूर  था 

देखा  था  कल ' जिगर ' को   सरे - राहे - मैक़दा
इस  दर्ज़ा  पी  गया   था   कि  नशे  में  चूर   था 

                       साभार :जिगर मुरादाबादी 
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दर्दमंदे-दिले-नासुबूर =अधीर ह्रदय का हितैषी 
सरे-राहे-मैक़दा =मधुशाला के रास्ते में 


Tuesday, March 15, 2011

कब हुज़ूमे - ग़म से मेरी जान घबराती नहीं .....

कब   हुजूमे - ग़म   से   मेरी   जान  घबराती  नहीं 
मै तो  मर  जाऊं , करूँ  पर  क्या   मौत आती  नहीं 
कौन  है  जिसको  नहीं  डर  आहे - सोजाँ  का   मेरे
कांपता   शोला   नहीं   था   या   बर्क़  थर्राती    नहीं 
क्या हुआ बाद-अस्ल गर ज़ाहिर में है नेको-सिफ़ात
जौहरे - जाती   पर    उनका   गैर - बदजाती    नहीं 
साफ़ खूब - ओ - जिश्त कह  देता है मुँह पर आइना 
बल    बेदीदे    का    सफ़ाई   आँख   शरमाती   नहीं 
हम  सरी   करता  है   गुल आरिज़ से उसकी ऐ सबा 
दो  तमांचे  मार  कर   तू   उसको   समझाती   नहीं
पहुँचे    हैं   चाके - गरेबाँ   ता    बदामन    हर   घड़ी 
मैं  कहूँ  क्यों   कर   कि  वहशत  पाँव  फैलाती नहीं 
याँ    तो   हम   बातें   बनाते   हैं   हज़ारों   ऐ  ज़फर 
जा  के  वाँ   कोई   भी  हमसे  बात  बन  आती नहीं 


                 साभार : ज़फर 
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आहे-सोजाँ =जलती आह 
बद-अस्ल=दुष्ट 
नेको-सिफ़ात =अच्छी आदत वाला 
जौहरे-जाती =निज गुण 
खूब-ओ-जिश्त=अच्छा-बुरा 
बल =लेकिन 
बेदीदे =आँख 
हमसरी=बराबरी 
आरिज़ =गाल 
बदामन =नीचे तक    



Monday, March 14, 2011

शायरे - फ़ितरत हूं मैं ........

शायरे - फ़ितरत हूं  मैं ,जब फ़िक्र फ़रमाता हूं  मैं 
रूह   बन   कर  ज़र्रे - ज़र्रे   में    समा  जाता    हूं

आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूं मैं 
जैसे हर  शै  में  किसी  शै  की  कमी  पाता  हूं  मैं 

जिस क़दर अफसाना-ए-हस्ती को दोहराता हूं मैं 
और  भी  बेगाना - ए - हस्ती   हुआ  जाता हूं   मैं 

जब   मकानों - लामकां  सब  से  गुज़र   जाता   हूं  मैं 
अल्लाह-अल्लाह तुझको खुद अपनी जगह पाता हूं मैं 

हाय  री  मजबूरियां  ,  तर्के -  मोहब्बत  के   लिए 
मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूं मैं 

मेरी  हिम्मत   देखना  ,  मेरी    तबीयत  देखना 
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूं मैं 

हुस्न को क्या दुश्मनी  है , इश्क़ को  क्या बैर  है 
अपने  ही  क़दमों  की  खुद ही ठोकर खाता हूं मैं 

तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर 
ले उठा  जाता  हूं  जालिम , ले  चला जाता  हूं मैं 

                 साभार :जिगर मुरादाबादी 
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शायरे-फ़ितरत =प्रकृति का शायर 
मकानो-लामका =स्थान 
  

Sunday, March 13, 2011

" तरबियत "

ज़िन्दगी कुछ  और  शै  है ,इल्म  है  कुछ  और  शै |
ज़िंदगी   सोज़े - जिगर , इल्म   है  सोज़े - दिमाग़ ||
इल्म में दौलत भी  है ,क़ुदरत  भी है ,लज्ज़त भी है |
एक  मुश्किल है कि हाथ  आता  नहीं अपना सुराग ||
अहले - दानिश  आम  हैं , कमयाब हैं अहले - नज़र |
क्या तअज्जुब  है  कि  ख़ाली  रह  गया तेरा अयाग ||
शैख़  !  मकतब  के  तरीक़ों  से  कुशादे - दिल  कहां |
किस तरह किबरीत से रोशन हो बिजली का चिराग ||

              साभार :इकबाल 
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सोज़े-जिगर =ह्रदय स्पर्शी 
अहले -दानिश =बुद्धिमान 
कमयाब =बहुत कम 
अहले -नज़र =दृष्टिवान 
अयाग =प्याला 
कुशादे -दिल =ह्रदय की विशालता 
किबरीत =गंधक  

Saturday, March 12, 2011

" ताज "

हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर ,अपार्थिव पूजन ?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन !
संग - सौध में  हो  श्रृंगार  मरण  का  शोभन ,
नग्न , क्षुधातुर  वास विहीन रहें जीवित जन ?

मानव ! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति ?
आत्मा का अपमान ,प्रेत औ  छाया से रति !!
प्रेम अर्चना यही , करें  हम  मरण  को  वरण ?
स्थापित कर कंकाल ,भरे  जीवन का प्रांगण ?

शव को  दें   हम  रूप , रंग , आदर  मानव  का
मानव को हम कुत्सित चित्र  बना  दें शव का ?
गत  युग  के  मृत  आदर्शों  के  ताज  मनोहर 
मानव  के  मोहान्ध  ह्रदय  में  किए  हुए  घर ,

भूल  गए  हम  जीवन  का  सन्देश   अनश्वर ,
मृतकों  के  हैं  मृतक , जीवितों  का  है  ईश्वर ! 

           साभार : सुमित्रानंदन पन्त  

Thursday, March 10, 2011

"जो था नहीं है ,जो है न होगा "

जो था नहीं है ,जो है न होगा ,
           यही है एक हर्फ़े-मुजरिमाना |
करीबतर है  नमूद  जिसकी 
           उसी का मुशताक़ है ज़माना ||
मेरी सुराही से क़तरा-क़तरा
           नए  हवादिस  टपक  रहे  हैं  |
मैं अपनी तस्बीहे-रोज़ो-शब का 
           शुमार करता हूं दाना - दाना ||
हर एक से आशना हूं लेकिन 
           जुदा - जुदा रस्मो - राह मेरी |
किसीका राकिब किसी का मुरकिब 
           किसी को इबरत का ताज़ियाना ||
न था अगर तू शरीक़े-महफ़िल ,
           कुसूर  मेरा  है  या   कि  तेरा  ?
मेरा तरीक़ा नहीं कि रख लूं 
           किसी की खातिर मये - शबाना ||
हवायें उनकी , फ़ज़ाए उनकी ,
            समन्दर  उनके  जहाज़  उनके |
गिरह भंवर की खुले तो क्योंकर ,
           भंवर   है    तक़दीर  का  बहाना ||
जहाने - नौ हो रहा है  पैदा 
            वो  आलमे - पीर  मर  रहा  है  |
जिसे फिरंगी मुक़ाबिरों ने 
            बना  दिया  है   क़मारखाना  ||
हवा है गो तेज़-ओ-तुंद लेकिन 
            चिराग़  अपना  जला  रहा  है |
वो मर्दे-दरवेश जिसको हक़ ने 
            दिए  हैं  अंदाज़े - खुस्रुवाना  ||

         साभार : इक़बाल
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तसबीहे-रोज़ो-शब = दिन-रात की माला 
शुमार = गणना 
आशना = परिचित 
राकिब =सवार 
मुरकिब =सवारी 
ताज़ियाना =कोड़ा 
ज़हाने-नौ = नया संसार 
आलमे-पीर =पुराना ज़माना 
मुक़ाबिरों ने =जुएबाज़ों ने 
क़मारखाना =जुआखाना 
मर्दे-दरवेश =साधू
हक़ =भगवान 
अंदाज़े-खुस्रुआना =बादशाहों के अंदाज़ 

Wednesday, March 9, 2011

तुझी से इब्तिदा है ..........

तुझी से इब्तिदा है , तू  ही  इक  दिन इंतिहा होगा 
सदा-ए-साज़ होगी और न जाने साजे-बेसदा होगा 

हमें मालूम है , हम से सुनो , महशर में क्या होगा 
सब  उसको  देखते  होंगे , वो  हमको देखता होगा 

जहन्नुम हो कि जन्नत जो भी होगा फ़ैसला होगा
ये क्या कम है  हमारा  और  उनका  सामना  होगा

निगाहे-क़हर पर भी  जानो-दिल  सब  खोए बैठा है 
निगाहे-मेहर आशिक़ पर अगर होगी तो क्या होगी

ये माना भेज  देगा हमको  महशर से जहन्नुम  में 
मगर जो दिल पे गुज़रेगी वो दिल ही जानता होगा 

समझता क्या  है तू दीवानगाने - इश्क़ को ज़ाहिद
ये हो जायेंगे जिस जानिब उसी जानिब खुदा होगा 

                  साभार :जिगर मुरादाबादी 
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सदा-ए-साज़ =साज़ की ध्वनि
साजे-बेसदा =ध्वनिरहित साज़
महशर =प्रलय क्षेत्र 
दीवानगाने-इश्क़ =पागल प्रेमियों को 
ज़ाहिद =विरक्त 
जानिब =ओर    

Monday, March 7, 2011

दिल को सुकून रूह को आराम आ गया ......

दिल को  सुकून  रूह  को  आराम  आ  गया 
मौत आ गयी कि दोस्त का पैगाम आ गया 

जब कोई ज़िक्रे - गर्दिशे - अय्याम आ  गया 
बेइख्तियार  लब  पे   तिरा  नाम   आ   गया 

दीवानगी हो , अक्ल हो ,उम्मीद हो  कि यास 
अपना वही  है  वक़्त  पे  जो  काम  आ   गया

दिल के मुआमलात में नासेह ! शिकस्त क्या 
सौ  बार  हुस्न  पर  भी   ये  इल्ज़ाम आ  गया 

सैयाद   शादमां   है    मगर  ये   तो   सोच  ले 
मै  आ  गया  कि  साया   तहे - दाम आ  गया 

दिल  को  न  पूछ  मार्काए - हुस्नों - इश्क़  में
क्या  जानिये  गरीब   कहां   काम  आ   गया 

ये क्या मुक़ामे-इश्क़ है ज़ालिम कि इन दिनों 
अक्सर   तिरे   बगैर   भी   आराम  आ   गया 

           साभार : जिगर मुरादाबादी 
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यास = निराशा 
नासेह = उपदेशक 
शादमां =खुश 
तहे-दाम = जाल में  


Sunday, March 6, 2011

जाने किस जीवन की सुधि ले......

                जाने  किस  जीवन  की  सुधि  ले 
                लहराती   आती जीवन मधु-बयार !
रंजित कर दे यह शिथिल चरण,ले नव अशोक का अरुण राग ,
मेरे   मंडन   को  आज   मधुर  , ला   रजनीगन्धा  का   पराग ,
                यूथी  की   मीलित  कलियों   से 
                अली  ,  दे   मेरी   कबरी  सँवार !
पाटल के  सुरभित  रंगों  से  रंग दे  हिम  सा  उज्जवल  दुकूल ,
गूँथ  दे  रशना  में  अलि-गुंजन  से  पूरित  झरते   बकुल -फूल ,
                रजनी  से  अंजन  मांग  सजनि,
                दे  मेरे   अलसित  नयन   सार !
तारक - लोचन से सींच - सींच नभ करता राज को विरज आज ,
बरसाता  पथ  में   हरसिंगार  केशर  से   चर्चित  सुमन - लाज ,
                कंटकित   रसालों   पर    उठता
                है  पागल  पिक  मुझको पुकार !
                लहराती  आती    मधु - बयार  !!
                
                 साभार : महादेवी वर्मा 

Wednesday, March 2, 2011

आज की रात बडी शोख.........................

आज  की   रात  बड़ी  शोख ,  बड़ी  नटखट  है 
आज    तो   तेरे  बिना    नींद   नहीं   आयेगी ,
आज  तो  तेरे  ही   आने  का  यहाँ  मौसम  है ,
आज  तबियत  न  ख़यालों  से  बहल  पायेगी  !

देख ! वह छत  पै उतर  आई है  सावन की घटा ,
खेल खिड़की  से  रही  आँख - मिचौनी बिजली ,
द्वार   हाथों   में   लिए  बांसुरी    बैठी   है   बहार 
और    गाती    है    कहीं    कुयलिया   कजली !

'पीऊ' पपीहे की,यह पुरवाई,यह बादल की गरज 
ऐसे  नस - नस  में  तेरी  चाह   जगा  जाती   है 
जैसे   पिंजरे    में   छटपटाते    हुए   पंछी    को 
अपनी    आज़ाद   उड़ानों   की   याद   आती  है !

यह  दहकते  हुए  जुगनू  -  यह   दिये   आवारा 
इस  तरह   रीते    हुए  नीम  पै  जल  उठते   हैं 
जैसे   बरसों   से   बुझी   सूनी  पडी  आँखों   में 
ढीठ बचपन  के  कभी  स्वपन  मचल  उठते  हैं !

और रिमझिम यह गुनहगार ,यह पानी की फुहार 
यूँ   किये  देती  है   गुमराह   वियोगी   मन    को 
ज्यूँ किसी फूल की गोदी  में  पडी  ओस  की  बूँद 
जूठा कर  देती  है  भौरों  के  विकल  चुम्बन  को !

         साभार : नीरज 

साथी कर न आज दुराव...............

         साथी , कर  न  आज   दुराव !

         खींच  ऊपर   को    भ्रुओं    को ,
         रोक   मत  अब  आंसुओं   को ,
सह सकेगी भार कितना यह नयन की नाव !
         साथी , कर  न  आज   दुराव !

         व्यक्त कर दे आज अश्रु-कण से ,
         आह   से , अस्फुट    वचन   से ,
प्राण-तन मन को दबाए जो हृदय के भाव |
         साथी  , कर  न  आज   दुराव !

         रो  रही   बुलबुल  विकल  हो 
         इस निशा  में  धैर्य - धन खो ,
वह कहीं समझे न उसके ही ह्रदय में घाव !
         साथी , कर  न  आज  दुराव !

      साभार : बच्चन 

Sunday, February 27, 2011

" जब तेरी याद आयी ........"

ज़ुल्फ़ पर गीत  लिखा , शेर नज़रों पै  कहा 
बन गई खुद ही ग़ज़ल -जब तेरी याद आई |

ख़ुशबू बन-बन के उड़ी
नींद   रातों   की   मेरी
जब   हवा   चूम   गई
मेहंदी  हाथों  की  तेरी
बरसे हर सिम्त केवल -जब तेरी याद आई |

एक जोगिन की तरह 
साँस  हर  गाने  लगी,
शक्ल नज़रों में  कोई
आने और जाने  लगी,
घर   बना   राजमहल -  जब तेरी याद आई |
नाम जब  तेरा  लिया
जल उठे दिल में दिए,
पास  जब  पाया  तुझे
काले  दिन  गोरे   हुए 
गई दुनिया  ही  बदल- जब  तेरी  याद  हुई |  

                साभार : नीरज  

"किस को भेजे वह यहां ......."

आसमां पे  है  ख़ुदा और  ज़मीं पे  हम 
आजकल वह इस तरफ़ देखता है कम 

आजकल  किसी  को वह टोकता  नहीं 
चाहे  कुछ  भी  कीजिये  रोकता   नहीं 
हो  रही  है  लूट  मार  फट रहे   हैं  बम 
आसमां पे  है  ख़ुदा  और  ज़मीं पे हम 

किस  को  भेजे  वह यहां ख़ाक  छानने 
इस   तमाम  भीड़   का   हाल   जानने 
आदमी हैं  अनगिनत  देवता   हैं  कम 
आसमां पे  है  ख़ुदा और  ज़मीं  पे  हम 

इतनी   दूर  से   अगर   देखता  भी   हो 
तेरे   मेरे    वास्ते    क्या     करेगा    वो 
ज़िंदगी है अपने-अपने बाजुओं का दम 
आसमां  पे  है ख़ुदा  और  ज़मीं  पे  हम 

         साभार : साहिर 

Friday, February 25, 2011

"इस तपिश का है मज़ा ...."

इस तपिश का है मज़ा दिल  ही  को हासिल होता 
काश मैं इश्क़  में सर - ता - ब - क़दम दिल होता 

करता  बीमारे - मोहब्बत  का  मसीहा जो  इलाज़ 
इतना दिक़  होता  कि  जीना  उसे मुश्किल  होता 

आप  आइना - ए - हस्ती  में  है  तू  अपना   हरीफ़
वर्ना   यां   कौन   था   जो    तेरे   मुकाबिल   होता 

होती गर उक्दा - कुशाई न  यदे - अल्लाह के साथ 
जोक हल क्योंकि मिरा उक्दा - ए - मुश्किल  होता 

       साभार : ज़ौक
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तपिश =जलने का 
सर - ता - ब - क़दम = सर से पांव तक 
हरीफ़ = शत्रु 
उकदा - कुशाई =समस्या का समाधान 
उक्दा - ए - मुश्किल =कठिन समस्या 

"जो ज़ीस्त को न समझे ......."

जो ज़ीस्त को न समझें ,जो मौत  को न जाने 
जीना उन्हीं का जीना , मरना उन्हीं का मरना 

दरिया  की  ज़िंदगी  पर   सदकें  हज़ार  जानें 
मुझको  नहीं  गवारा  साहिल की मौत  मरना 

कुछ आ चली है आहट  उस पाए -नाज़ की सी 
तुझ पर खुदा की रहमत ,ऐ  दिल ज़रा ठहरना 

   साभार : जिगर मुरादाबादी 
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ज़ीस्त = जीवन 
पाए - नाज़ = प्रेयसी के पैरों की आहट

   

Thursday, February 24, 2011

"मोहब्बत तर्क की ......

मोहब्बत  तर्क  की  मैंने , गिरेबां   सी   लिया   मैंने 
ज़माने ! अब तो खुश हो ,ज़हर ये भी  पी लिया मैंने 

अभी ज़िंदा हूं लेकिन सोचता  रहता  हूं  ख़लवत  में 
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी  लिया मैंने 

उन्हें अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है 
कि कुछ मुद्दत हसीं ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैंने 

बस अब तो दामने - दिल  छोड़  दो  बेकार  उम्मीदों 
बहुत दुख सह लिए मैंने , बहुत  दिन जी लिया  मैंने 

    साभार : साहिर लुधियानवी 

"जब कोई कहता है .........."

जब  कोई  कहता  है   हस्ती  को  हस्ती  खूब   है 
उसकी गफ़लत पर फ़ना उस वक़्त हँसती खूब है 
तौबा  है  साकी  नहीं  पीने   का  मैं  जामे - शराब 
मुझको अपनी बादा- ए- वहदत की मस्ती ख़ूब है 
मुल्क  दुनिया की  तो आबादी  है  वीराना तमाम 
और  बसती  है  जहाँ   इक  ख़ल्क़ बसती ख़ूब  है 
'ज़फ़र'  आंखें  कह  देती  हैं तेरी , क्या छुपाता  है 
मए- उल्फ़त की कैफ़ियत छुपाये से  नहीं  छुपती 

           साभार : ज़फ़र 
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हस्ती : अस्तित्व
फ़ना : मृत्यु 
ख़ल्क़ : सृष्टि 

" सांस लो या खुश रहो "

क़सम  उस  मौत  की  उठती  जवानी  में जो आती है 
उरूसे - नौ  को   बेवा , मां  को   दीवाना    बनाती    है 

जहां   से  झुटपुटे   के  वक़्त  इक  ताबूत  निकला  हो 
क़सम उस शब की जो पहले-पहल उस घर में आती है 

अज़ीजो  की   निगाहें   ढूढती   हैं   मरने   वालों   को 
क़सम उस सुब्ह की जो ग़म का ये मंजर दिखाती  हैं 

क़सम साइल के उस एहसास की जब देख कर उसको 
सियाही   दफ़अतन   कंजूस    के  माथे   पे  आती   है 

क़सम उन   आंसुओं की मां की आंखो से जो  बहते  हैं 
जिगर  थामे  हुए   जब  लाश  पर   बेटे  की  आती   है 

क़सम  उस  बेबसी  की  अपने  शौहर  के  जनाजे  पर 
कलेजा  थाम  कर  जब  ताजा  दुल्हन सर झुकाती  है 

नज़र   पड़ते  ही  इक  जीमर्तबा  मेहमां  के  चेहरे   पर 
क़सम उस शर्म की मुफ़लिस की आंखों में जो आती है 

कि ये  दुनिया  सरासर  ख्वाबे  और  ख्वाबे - परीशां  है 
'खुशी'  आती  नहीं  सीने  में  जब  तक  सांस  आती  है 

           साभार : जोश मलीहाबादी 
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उरूसे - नौ = नई दुल्हन 
ताबूत =अर्थी 
साइल के =सवाली के 
दफ़तन = एकाएक 
जीमर्तबा =धनाढ्य